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दोहा-१०(विविधा)

व्यर्थ प्रपंचन छोड़कर,मीठी वाणी बोल! 
कर तू खुद ही न्याय अब,अंतर के पट खोल !!

धुआँ धुआँ चहुँ ओर है,घिरी अँधेरी रात !
जुगनूँ फिर भी कर रहा,उजियारे की बात !!

लोगों को क्या हो गया,करते उल्टी बात !
कहें रात को दिवस अब ,और दिवस को रात !!

शब्दों के सामर्थ्य का, ऐसा हो अध्याय।
चले लेखनी आपकी, लिखे न्याय ही न्याय॥

नीति नियम दिखते नहीं ,भ्रष्ट हुए सब तंत्र !
जिसे देखिये रट रहा ,लोलुपता का मंत्र !!

जानबूझकर क्यों मनुज ,करते हो तुम भूल !
चुभने वाली हैं यही ,तुमको बनकर शूल !!
********************************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक /अप्रकाशित

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Comment by ram shiromani pathak on November 28, 2013 at 12:34am

बहुत बहुत आभार आदरणीय बैद्य नाथ  जी ,,,,,सादर 

Comment by ram shiromani pathak on November 28, 2013 at 12:33am

बहुत बहुत आभार आदरणीय अखिलेश जी ,,,,,सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 27, 2013 at 9:14pm

आदरणीय राम भाई , आपके हर दोहे कुछ न कुछ सन्देश  दे रहे है , सुन्दर दोहों के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!!

Comment by रमेश कुमार चौहान on November 27, 2013 at 7:32pm

संदेश परक दोहो के लिये बधाई


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 27, 2013 at 3:34pm

भाई राम, राम-राम. इस बार के दोहे कथ्य की दृष्टि से उतने गहन तो नहीं ही आये, व्याकरण को भी आपने हिसाब से प्रयुक्त किया है. होता है .. अक्सर ऐसा होता कि प्रयास कगरियाता हुआ दिखता है.

:-)))

अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी.

शुभेच्छाएँ

Comment by Saarthi Baidyanath on November 27, 2013 at 1:47pm

प्रस्तुत दोहे ..सचमुच ही प्रेरक और संदेशप्रद हैं !...सुन्दर ..बहुत सुन्दर 

जानबूझकर क्यों मनुज ,करते हो तुम भूल !
चुभने वाली हैं यही ,तुमको बनकर शूल !!.....वाह राम शिरोमणी जी ...बढ़िया 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 1:04pm

पाठक जी

धुआ धुआ  चहू ओर है ----

बहुत अच्छा है  i

मेरी शुभकामनाये i

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 12:48pm

दोहे में महारत हासिल है , एक सीख भी होती है। बधाई राम भाई । निति को नीति कर लीजिये मात्रा भी सही हो जाएगी।

कृपया ध्यान दे...

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