व्यर्थ प्रपंचन छोड़कर,मीठी वाणी बोल!
कर तू खुद ही न्याय अब,अंतर के पट खोल !!
धुआँ धुआँ चहुँ ओर है,घिरी अँधेरी रात !
जुगनूँ फिर भी कर रहा,उजियारे की बात !!
लोगों को क्या हो गया,करते उल्टी बात !
कहें रात को दिवस अब ,और दिवस को रात !!
शब्दों के सामर्थ्य का, ऐसा हो अध्याय।
चले लेखनी आपकी, लिखे न्याय ही न्याय॥
नीति नियम दिखते नहीं ,भ्रष्ट हुए सब तंत्र !
जिसे देखिये रट रहा ,लोलुपता का मंत्र !!
जानबूझकर क्यों मनुज ,करते हो तुम भूल !
चुभने वाली हैं यही ,तुमको बनकर शूल !!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय बैद्य नाथ जी ,,,,,सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय अखिलेश जी ,,,,,सादर
आदरणीय राम भाई , आपके हर दोहे कुछ न कुछ सन्देश दे रहे है , सुन्दर दोहों के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!!
संदेश परक दोहो के लिये बधाई
भाई राम, राम-राम. इस बार के दोहे कथ्य की दृष्टि से उतने गहन तो नहीं ही आये, व्याकरण को भी आपने हिसाब से प्रयुक्त किया है. होता है .. अक्सर ऐसा होता कि प्रयास कगरियाता हुआ दिखता है.
:-)))
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी.
शुभेच्छाएँ
प्रस्तुत दोहे ..सचमुच ही प्रेरक और संदेशप्रद हैं !...सुन्दर ..बहुत सुन्दर
जानबूझकर क्यों मनुज ,करते हो तुम भूल !
चुभने वाली हैं यही ,तुमको बनकर शूल !!.....वाह राम शिरोमणी जी ...बढ़िया
पाठक जी
धुआ धुआ चहू ओर है ----
बहुत अच्छा है i
मेरी शुभकामनाये i
दोहे में महारत हासिल है , एक सीख भी होती है। बधाई राम भाई । निति को नीति कर लीजिये मात्रा भी सही हो जाएगी।
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