छोटे शहर में ब्याही गईं, कुछ महानगर की लड़कियाँ।
जींस टॉप लेकर आईं, ससुराल में अपनी लड़कियाँ।।
बहुयें सभी बन गई सहेली, मुलाकातें भी होती रहीं।
जींस-टॉप में पहुँच गईं, एक उत्सव में बहू बेटियाँ॥
सास - ससुर नाराज हुए, पति देव बहुत शर्मिंदा हुए।
भिखारियों को घर पे बुलाए, साथ थी उनकी बेटियाँ।।
बड़ी देर तक समझाये फिर, जींस पेंट और टॉप दिये।
खुश हुये भिखारी और बोले, पहनेंगी हमारी बे़टियाँ।।
जींस पहन झोला लटकाये, घूम रहीं हैं युवा भिखारिन।
मुड़ - मुड़कर देखें सब कोई, वृद्ध युवक और युव़तियाँ।।
भीख माँगती जींस पहनकर, मनचले सीटी बजाते हैं।
पैसे ज़्यादा मिलने से, खुश रहतीं भिखारिन बेटियाँ।।
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-अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव, धमतरी(छत्तीसगढ़)
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
चलिए आप जीती मैं हारा, वैसे विवाह में मुझे धोती पहननी पड़ी थी, पर अब नहीं पहनता, सादर
एक बेमतलब का विवाद इस रचना पर चल रहा है!
रचना कर्म करते समय भी इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि अनावश्यक विवाद न उत्पन्न हो.
खैर, रचना की बात करें तो रचना में कटाक्ष तो है पर हास्य बिलकुल नहीं. कथ्य, गेयता के हिसाब से रचना बेहद कमजोर है. शिल्प की बात करें तो इस रचना का शिल्प भी वही शिल्प है, जो अक्सर हुआ करता है, जिसे कोई नाम दिया जाना संभव न हो.
मेरा एक सीधा निवेदन है कि शिल्प और कथ्य दोनों पर सार्थक प्रयास करें विभिन्न समूहों में जो लेख हैं, उनका अध्ययन करें.
आशा है आप अन्यथा न लेंगे.
सादर!
आप ने स्पष्टीकरण देने के लिए बहुत मेहनत की आदरणीय | इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए बहुत बहुत आभार | मुझे बिल्कुल पता नही था | इसका मतलब सभी पुरुषों को धोती कुर्ता गमछा और सदरी अपना लेना चाहिए | वो भी पूर्ण स्वदेशी |
आदरणीय मीना जी, आप किन छोटे शहरों में गई हैं पता नहीं, पर मैं कोलकाता महानगर में रहता हूं और यहां किसी भी सामाजिक उत्सव में परंपरा से हट कर वस्त्र पहने हुए मैंने किसी को नहीं देखा । यानि जैसा उत्सव वैसा पहनावा । अब ये ना कहिएगा कि जन्मदिन की पार्टी भी इसमें शामिल है,सादर
इस रचना को प्रकाशित करने के लिए ओबीओ का हार्दिक धन्यवाद।
आप सभी अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं वैसे ही वह परिवार भी स्वतंत्र था निर्णय लेने के लिए। देश का उच्च वर्ग, फिल्म टीवी के कलाकार , चैनल्स वाले, बड़े उद्योग घराने , क्रिकेट से अरबों कमाने वाले और अति आधुनिक दिखने के चक्कर में अमेरिका यूरोप का अंध समर्थन करने वाले ये ॥ छः लोग ॥ हमारी संस्कृति , परम्परा रीति रिवाज से कभी सहमत न होंगे॥ कुछ उदाहरण सहित अपनी बात स्पष्ट कर दूं ......
1// टेनिस यूरोप अमेरिका का प्रमुख खेल है, भाग लेने वाली लड़कियाँ जांघ के ऊपरी हिस्से तक स्कर्टनुमा कुछ पहनती हैं, खूब तालियाँ बजती हैं, खूब पैसा कमाती हैं । बैडमिंटन के नियम कानून भी वही देश बनाते हैं लेकिन वर्चस्व एशियायी देशों का है। विश्व बैडमिंटन संघ से एक फूहड़ प्रस्ताव आया -- बैडमिंटन को भी लोकप्रिय बनाना है और महिला खिलाड़ियों को खूब पैसा कमाना है तो उन्हें भी टेनिस खिलाड़ियों की तरह छोटे वस्त्र पहनना चाहिए, गुलाम मानसिकता वाला भारत ढंग से विरोध नहीं कर पा रहा था और समर्थन में सिर भी हिला देता अगर चीन मलेशिया इंडोनेशिया और अन्य एशियाई देश इसका पुरजोर विरोध न करते। आखिर यूरोप अमेरिका को झुकना पड़ा और हमारी बहन बेटियाँ फूहड़ ड्रेस कोड से बच गईं॥ हार्दिक धन्यवाद चीन और मुस्लिम देशों को। साफ जाहिर है कि यूरोप अमेरिका अपनी मर्जी हम पर थोपना चाहते हैं और हम भारतीय नतमस्तक हो स्वीकार कर लेते हैं।
2// तिरुपति बालाजी देवस्थानम में जींस पेंट आदि में लड़कियों / महिलाओं को एक सीमा में रोक देते हैं, अंदर तक जाने की इजाजत नहीं है इसका भी विरोध हुआ पर सफल नहीं हुए। ऐसे कुछ और पवित्र स्थल भी हैं॥
3 // कुछ बरस पहले जैन समाज ने छत्तीसगढ़ / मध्यप्रदेश स्तर पर प्रस्ताव पारित किया कि सार्वजनिक स्थलों , सामाजिक/ धार्मिक आयोजनों में जींस-टॉप या अन्य फूहड़ वस्त्रों में लड़कियाँ / महिलायें न आयें । इसे सख्ती से लागू करने की जिम्मेदारी विशेष तौर पर माँ को सौंपी गई है॥ क्या ये गलत है? क्षेत्रीय स्तर पर अन्य समाज ने भी कुछ नियम बनायें हैं ॥
4 // बड़े शहर के एक कालेज का माहौल खराब होते देख प्रबंध कमेटी ने, जिसमें कालेज की प्राचार्या भी शामिल थीं //जींस-टॉप में छात्राओं को न आने और 20 दिनों के अंदर ड्रेस कोड लागू करने का निर्णय लिया गया// अधिकतर छात्राओं ने समर्थन भी किया, कुछ छात्रायें विरोध में नारेबाज़ी करने लगीं , मीडिया के कुछ लोग भी पहुँच गये। दूसरे दिन प्राचार्या ने कालेज स्टाफ की मीटिंग बुलाई , शिक्षिकायें समर्थन में थीं , आश्चर्य तब हुआ जब सभी शिक्षक 24 घंटे के अंदर ड्रेस कोड के विरोध में उतर आये। (मानो कह रहे हों कि ड्रेस कोड के बाद तो कालेज में पढ़ाने का आनंद ही नहीं आयेगा)।
5 // सच तो ये है कि हम क्या पहनें, क्या खायें, क्या पढ़ें , क्या देखें, हमारी दिनचर्या क्या हो , किस दिन को किस नाम से मनायें यह सब यूरोप अमेरिका तय करता है हम नहीं। भारत में हर वर्ग और रिश्तों के लिए इतने अधिक त्योंहारों के होते हुए भी हम वेलेंटाइन और फ्रेंडशिप डे मनाते हैं ॥ इन दिनों में क्या कुछ नहीं होता। सोचिये इंडिया शब्द को क्यों हटा नहीं पाते ? माया/ फिल्म नगरी मुम्बई अचानक बालीवुड हो जाता है। जब कि सभी वरिष्ठ कलाकारों ने पुरजोर विरोध किया था। लेकिन इन सब बातों में साथ देते हैं उपरोक्त छः लोग॥
अंत में चलते-चलते.... अक्टूबर और नवम्बर में ओबीओ ने दो विषय परम्परा और परिवार एवं हम आज़ाद है पर रचनायें आमंत्रित किये थे , किसी ने नहीं कहा कि हम सही राह पर हैं । परम्परायें टूट रहीं हैं परिवार बिखर चुका है, शिक्षा संस्कृति भाषा वेश- भूषा कुछ भी अपना नहीं है, हमारी सभ्यता नष्ट हो रही है, हम आज भी गुलाम हैं आदि- आदि। रचनाओं पर सब ने सब को बधाई दी। मैं आज भी कहता हूँ - गुलाम तो 69 देश हुए थे पर भारत जैसा हर बात में बिना सोचे समझे नकल करने वाला कोई न हुआ। नारी सशक्तीकरण, नारी स्वतंत्रता की बात करने वाले कुछ लोग जेल में हैं और कुछ जाने वाले हैं।
सिर से पावों तक गुलामी, हर कहीं आती नज़र।
आत्मा गिरवी रखी है, फिर भी हम आज़ाद हैं !!!
शिक्षित भी हैं, विद्वान हैं, कुछ ऊँची पदवी वाले हैं।
पर है गुलामों जैसी आदत, नकल में उस्ताद हैं !!!
अट्टहास करता मैकाले, हम सबकी बेवकूफी पर। एक अकेला देश पे भारी, या हम ढोर हैं या हैं गंवार॥
मेरी रचना पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद और आभार॥ विश्वास है कि मेरे इस स्पष्टीकरण के बाद आप सभी की नाराज़गी कुछ कम हुई होगी। ... सादर ।
आप किस छोटे शहर की बात कर रहे हैं आदरणीय मृदु जी, मै तो हर शहर मे लड़कियों को जींस,लोअर, कैप्री और टॉप पहनते देख रहीं हूँ | शहर छोड़ दीजिए गाँवों मे भी देख रही हूँ और इसमें कोई बुराई भी नही दिख रही है मुझे
इस रचना पर विवाद व्यर्थ का है, सीधी और सरल बात यह है कि देश, काल, पात्र को ध्यान में रखकर ही कुछ करना चाहिए । छोटे शहरों में जींस अभी भी स्वीकार्य नहीं है यह बात बिल्कुल सही है । रचना का मूल संदेश यही है कि हमें अपनी लोक संस्कृति के अनुरूप ही पहनावे का ध्यान रखना चाहिए । दूसरे, लेखक ने पहले ही इसे हास्य-व्यंग्य की रचना कह दिया है एवं हास्य रचना को उसी अंदाज में देखना चाहिए । लेखक मेरे हिसाब से सही हैं उनका इरादा किसी को तकलीफ देना कतई नहीं रहा प्रतीत होता है, सादर
आदरणीय अखिलेश जी इतने अच्छे रचनाकार हैं इतनी उत्कृष्ट रचनाएं उन्होंने ओ बी ओ के पाठकों को दी है इसी लिए उनका सम्मान हम दिल से करते हैं किन्तु उनकी ये कविता हमारे गले नहीं उतरी ये एक चौंकाने वाली रचना रही उनसे या उनकी कविता से शिल्प से कोई आपत्ति नहीं सिर्फ कविता के भाव थोडा हर्ट किये हैं फिर भी ये प्रतिक्रियाएं उन्हें कठोर लगती हैं तो मैं क्षमा प्रार्थी हूँ.
आदरणीय विजय मिश्र जी जींस टॉप की मार्केटिंग जानकारी साझा करने के लिए सादर आभार.
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