भाव की हर बांसुरी में
भर गया है कौन पारा ?
देखता हूं
दर-बदर जब
सांझ की
उस धूप को
कुछ मचलती
कामना हित
हेय घोषित
रूप को
सोचता हूं क्या नहीं था
वह इन्हीं का चांद-तारा ?
बौखती इन
पीढि़यों के
इस घुटे
संसार पर
मोद करता
नामवर वह
कौन अपनी
हार पर
शील शारद के अरों को
ऐंठती यह कौन धारा ?
इक जरा सी
आह सुन जो
छूटता
ले प्राण था
तू ही जिनकी
जिंदगी था
तू ही जिनकी
जान था
चाहते थे वे रथी कब
सारी धरती व्योम सारा ?
देवता वो
कौन है जो
हर सके
इस पाप को
गुणसूत्र की
वेणी पकड़ ये
लीलते बस
'आप' को
स्वार्थ की ताबीज ताने
किसने है ये मंत्र मारा ?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
रचना बहुत भावभीनी हुयी है| मुझे कहीं कहीं कठिन अवश्य लगी है| //बौखती// शब्द का तात्पर्य नही समझ सकी हूँ!
रचना पर हार्दिक बधाई!!
वाह! लाजवाब! तीसरा कोई और शब्द कह पाने की स्थिति में नहीं हूँ!
आपको हार्दिक बधाई!
//प्राण और जान दोनों के प्रयोग एक साथ दोनों में भिन्नता क्या है भाई जी//
आदरणीय अरून शर्मा 'अनन्त' जी इस रचना में मैंने प्राण को समस्त चैतन्य ऊर्जा के प्रतीक के रूप में ग्रहण किया है जो अमूर्त है, स्पंदन का उत्स है जबकि जान इसी ऊर्जा की पार्थिव अभिव्यक्ति है, प्राण जहां प्रेरक है वहीं प्रेरणा भी, सादर
//कही- कही मै आपकी कल्पना को पकड़ नहीं सका वह मेरा अज्ञान है // श्रद्धेय, डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, कहीं कुछ त्रुटि या अस्पष्टता हो तो अवश्य साझा करें ताकि आगे की रचनाओं में संप्रेषणीयता स्पष्ट हो, सादर
आप सबका हार्दिक आभार
aa.Rajesh jee gahan bhaav liye is sundr rachna ke prastutikaran ke liye haardik badhaaee
आदरणीय बहुत ही सुन्दर गीत रचा हैं आपने, किन्तु मुझे इन पंक्तियों में तनिक भ्रम हो रहा है.
इक जरा सी
आह सुन जो
छूटता
ले प्राण था
तू ही जिनकी
जिंदगी था
तू ही जिनकी
जान था ... (प्राण और जान दोनों के प्रयोग एक साथ दोनों में भिन्नता क्या है भाई जी)
आप तो पारा पिघला के बहा रहे हैं
ग़ज़ब का गीत आदरणीय
बधाई स्वीकार करें जय हो
आदरणीय राजेश मृदु भाई , सुन्दर गीत रचना के लिये आपको बधाई !!!!
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