"अंकल, इस बार सामान के बिल में सौ-दो सौ रूपये जरा बढाकर लिख देना, आगे मैं समझ लूँगा" रोहन ने दुकानदार से कहा.
"ऐसा ?.. पर बेटा, यह तो तुम्हारे घर की ही लिस्ट है न ?" दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ.
"हाँ है तो. पर क्या है कि पापा आजकल पॉकेटमनी देने में बहुत आना-कानी करने लगे हैं.. " रोहन ने अपनी परेशानी बतायी.
(संशोधित)
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
सुन्दर परिश्रम सार्थक हुआ है। ……लिखते रहे आदरणीय जीतेन्द्र जी। ....... हार्दिक बधाई आपको। ।शुभ शुभ
सुंदर लघु कथा , आ० जितेंद्र जी ।
घर ही भ्रष्टाचार की प्रथम प्रयोगशाला /उम्दा जितेन्द भाई
बहुत अच्छी तरह संशोधन किया आपने आदरणीय जितेन्द्र जी ....हार्दिक बधाई
लघुकथा ने मंटो की छोटी और मारक लघुकथाओं की याद दिलादी। जय हो।
गीत जी
इसे पढ़ चुका था i पर आपने जो संशोधन किये उससे यह रचना जीवंत होकर सर्वथा नवीन हो गयी i आपको साधुवाद i
भाई जितेन्द्र जी, सब से पहले तो आपके सीखने के जज़बे को सलाम कहता हूँ. दोस्तों और शुभचिंतकों की राय का सम्मान करते हुए जिस तरह बार बार इसमें सुधार किया है वह वंदनीय है. अब आपकी लघुकथा काफी उभर कर सामने आई है, हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय योगराज जी
आपका स्नेहिल मार्गदर्शन पाकर व् आपके द्वारा रचना पर बताये गये, विस्तृत बिन्दुओ को ध्यान में रखकर, मैंने उक्त घटना को एक लघुकथा बनाने का पूर्ण प्रयास किया है, आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता हमेशा रहेगी.
सादर!
//hhhhhhhhh//
सविता मिश्रा जी, यह किस प्रकार की टिप्प्णी है ?
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