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जब रोज मरा करते थे ...

बातें खत्म हो गई जिसका 

जिक्र हम किया करते थे ...

वो गलियाँ कहीं 

खो गईं जिनपे हम 

चला करते थे ... 

न शाम रही न धुआँ 

किसी एक भी 

चराग में... 

वो चले गए जिन्हे

हम देखा करते थे... 

हमको क्या हक़ है

अब, किसी को कुछ कहने का ,,, 

रास्ता वो सब छूट गए 

जिनपे हम मिला करते थे ... 

अब हमको क्या मारेगी 

क्या, ये दुनियाँ की विरनिया 

वो अंदाज और था जीने का 

जब रोज मरा करते थे ... 

मौलिक व अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 10, 2013 at 7:52pm

मनोभावों की, स्मृतियों की  सुन्दर अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई आ० आमोद श्रीवास्तव  जी 

टंकण त्रुटियाँ कहीं कहीं रह गयी हैं ..उन्हें संशोधित कर लें 

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 9, 2013 at 2:08pm

आदरणीय आमोद जी बढ़िया प्रयास है विरनिया को वीरानियाँ कर लें.

Comment by Meena Pathak on December 9, 2013 at 1:55pm

सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीय | 'विरनिया' को सुधार लें | सादर  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 9, 2013 at 1:15pm

आदरणीय आमोद जी ..इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई ..सादर 

Comment by Neeraj Neer on December 9, 2013 at 9:26am

बहुत सुन्दर ...  विरनिया  लगता है टाइपिंग की गलती है , सुधर लें .. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 8, 2013 at 8:35pm

आदरणीय आमोद जी इस खूबसूरत कविता के लिये आपको बधाई

कृपया ध्यान दे...

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"आ. भाई अमित जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए धन्यवाद।"
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