“पापा ! टीचर ने कहा है कि फीस जमा करवा दो, नहीं तो इस बार नाम अवश्य काट दिया जाएगा।"
“अजी सुनते हो ! बनिया आज फिर पैसे मांगने आया था।”
“अरे बेटा ! कई दिन हो गए दवाई खत्म हुए, अब तो दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, आज तो दवाई ला दो।”
ये सभी आवाज़ें उसके मस्तिष्क पर हथोड़े की भाँति चोट कर रही थीँ।
मगर उसके दिल में एक नई कविता का खाका जन्म ले रहा था।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मीना पाठक जी व आदरणी चन्द्रशेखर जी
लघुकथा पढ़ने व पसंद करने हेतु हृदय से धन्यवाद ।
आदरणीय डाॅ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,
लघुकथा की रूह में उतरने पर आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आपकी टिप्पणी से कृतार्थ हूं।
आदरणीय जितेन्द्र जी एवं गिरीराज भंडारी जी,
लघुकथा पर आपकी विवेचना का हृदय से आभार ।
परम आदरणीय बागी भाई जी,
आप लघुकथा की रूह तक पहुंचे धन्यवाद। आपसे शाबासी प्राप्त करना सदैव बहुत ही अच्छा लगता है। भविष्य में भी आपका आशीर्वाद मिलता रहे....... धन्यवाद ।
माननीय गीतिका बहन, अापकी उत्साहवर्धक टिप्पणी से आनंदित हुआ, धन्यवाद.
आदरणीय शिज्जु शकूर जी, आपने लघुकथा का मर्म समझा, और आपको यह अच्छी लगी, धन्यवाद
इस सशक्त लघु कथा के लिए बधाई,आदरणीय
सादर,
विजय निकोर
बहुत सुंदर लघु कथा.बधाई स्वीकार करें.
सादर
आदरणीय रवि जी,
मस्तिष्क पर हथौडे़ के अनवरत प्रहार हुए हैं.. फिरभी हृदय से उठती कोमल स्वरलहरियों के स्पंदन को रोक नहीं सका.
.......अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ.......गुलाम अली की गजल को गुनगुनाने का मन कर रहा है....
सादर.
शीर्षक से लेकर लघुकथा के अंतिम शब्द तक सबकुछ सार्थक, व्यवस्थित और सहज. वाह वाह वाह !
बहुत दिनों पर इस विधा में वस्तुतः कुछ ऐसा पढ़ा जिससे एक पाठक के तौर पर अपने वर्तमान को बिना किसी अतिरेक या शिष्टाचारी व्यवहार के जोड़ गया. एक सामान्य से तथ्य का अद्वितीय प्रस्तुतीकरण !
बधाई, अनुज रविजी ,बधाई.. !
शुभ-शुभ
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