शास्त्री जी बहुत खुश हैं, नए घर का आज गृह प्रवेश समारोह है । विदेश से कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट की पढ़ाई पूर्ण कर इकलौता बेटा भी कल घर पहुँच गया था ।
"पापा, गेस्ट आ गये हैं आप कहें तो डिनर स्टार्ट करवा दूँ"
"नहीं बेटा, कुछ विशिष्ट अतिथियों का मैं इन्तजार कर रहा हूँ पहले वो आ जाएँ फिर भोजन प्रारम्भ कराते हैं" शास्त्री जी ने बेटे को समझाया ।
"विशिष्ट अतिथि कौन पापा ?"
"इस घर को अपने श्रम और पसीने से बनाने वाले मिस्त्री और मजदूर"
"उफ्फ ! आप भी न पापा, उनको उनकी कीमत दे दी, बात ख़त्म"
"बेटा, पसीने की कीमत देने की औकात मुझ में क्या किसी में नहीं है, शायद यह बात मैनेजमेंट में नहीं पढ़ाई जाती ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment
बहुत सुंदर और सार्थक सन्देश देती लघु कथा ...........सर आपको जब भी पढ़ते है मन खुश हो जाता है .....शुभं
बहुत सुंदर एवम शिक्षाप्रद लघु कथा अपने उद्देश्य को सार्थक करता हुआ.
शुभकामनाएँ
कुंती
आभार प्रिय राम भाई ।
आदरणीय बागी सर ..आत्म चिंतन के लिए बिबश करती हुई एक सशक्त लघु कथा ..बिलकुल सच कहा है आपने हम इतने प्रोफेशनल हो गए हैं की मानवीय सम्बेदना के लिए कोई जगह ही नहीं बची है ..आपकी यह रचना समाज के लिए एक सन्देश है ..आपके इस चिंतन को सलाम ..सादर प्रणाम के सा
बहुत सुन्दर सन्देश देती लघुकथा हेतु बधाई आप को आदरणीय बागी जी | सादर
आदरणीय बागी जी
'कीमत'' लघु कथा की कोई कीमत नहीं है i बेशकीमती है यह कथा i धन्य है भारत की वह विचारधारा जो परिश्रम और पसीने के बिन्दुओ का सम्मान करना जानती है i उतना ही सच यह भी है कि नयी पीढी ऐसी सोच और संस्कार से दूर होती जा रही है i हमें जाग्रति के ऐसे सन्देश साहित्य के माध्यम से समाज को देने चाहिए i बागी जी की सशक्त सोच के समक्ष मै नतमस्तक हूँ i बहुत - बहुत बधाई हो श्रीमन i
बिलकुल सही सन्देश है, आखिर पसीने की क़ीमत कौन चुका पाया है आज तक ? लघुकथा शिल्प और कहन के दृष्टिकोण से बेहद कसी हुई और चुस्त है, मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें भाई गणेश बागी जी.
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