मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
आवारा
भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.
जिंदगी सिसक रही है जहाँ
दम घोटूँ
एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है
बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.
सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.
(2)
मैं क्या करूँ
सूरज निकलता है
भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से
मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ
कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो
कभी किसी सन्नारी के गजरों में.
(3)
पारदर्शी मेरा शरीर
घूमता हूँ हर जगह
विडम्बना मेरी, देखता हूँ सब कुछ
दृश्य-अदृश्य
आश्चर्य! जो देवता रात भर
रौंदता है फूलों को
दिन में धूप गुग्गल के धुएँ से
पवित्र करता सारा वातावरण
धन्य करता है जग को
उठाए हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में.
(4)
मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ
स्वप्नलोक की सैर कराता
लेता हूँ सबको अपने बाहुपाश में.
(5)
संध्या मुझे जन्म देती है,
चल देती है मेरा बाल रूप सँवार के
तारों के प्रकाश में, अमावस में
पूर्ण चंद्रमा की रोशनी में
मैं पूर्ण यौवन पाता हूँ.
(6)
जन्म लेता है मेरे उर से नित्य एक दिवस
प्रकाशवान, पलता हुआ अरुणिमा की गोद में-
हाँ, मैं समर्थ हूँ, सच्चा हूँ, रात हूँ.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
जन्म लेता है मेरे उर से नित्य एक दिवस
प्रकाशवान, पलता हुआ अरुणिमा की गोद में-
हाँ, मैं समर्थ हूँ, सच्चा हूँ, रात हूँ.
एक बहुत ही पोजिटिव नोट पर कविता समाप्त होती है और हमेशा, हर हाल में पोजिटिव रहने की सीख भी दे जाती है । ये जो संदेश है वह बेहद विचारणीय है कि क्यों ना हम अपनी ऊर्जा को सकारात्मक तरीके से उपयोग में लाए, राह कितनी भी ऊबड़-खाबड़ क्यों ना हो अपनी नेगेटिविटी में भी पोजिटिव एप्रोच रखना बड़ी बात होती है, आपको ढेरों बधाई । बहुत सुंदर शब्दांकन है, सादर
//मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
आवारा
भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.
जिंदगी सिसक रही है जहाँ
दम घोटूँ
एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है
बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.
सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.
(2)
मैं क्या करूँ
सूरज निकलता है
भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से
मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ
कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो
कभी किसी सन्नारी के गजरों में.//
सभी अंश सुन्दर हैं, पर यह तो बहुत ही मन को छू गए।
आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया कुंती जी।
जब किसी रचनाकार की कृति को सराहा जाता है तो उसे अपार हर्ष होता है और लिखने की प्रेरणा भी मिलती है. रचना की सार्थकता तभी है जब उसे कोई समझे और पढ़कर आनंदित हो. मुझे खुशी है कि आप सुधिजनो, इस रचना का रसास्वादन किया.आप सभी हृदय से धन्यवाद करती हूँ.
भाई आशुतोश जी,
काल गणना के अनुसार कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष क्रम से प्रतिपदा से अमावस और पूर्णिमा तक, नित्य रात जन्म लेता है जवान होता है और सुवह तक उसका विलय हो जाता है..अलंकार की दृष्टि से देखिये तो इस रचना में अभिधा, लाक्षणा और व्यंजना है.
सादर
कुंती
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्
सुन्दर और सार्थक रचना के लिये बधायी है
मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ.................चकित रह जाती हूँ आपकी लेखनी की गहराई देख कर! बहुत बहुत बधाई प्रेषित करती हूँ!
आदरणीया कुंती जी ..जबरदस्त रचना ..गंभीर भाव गहन चिंतन ..तमाम दृश्य अदृश्य संकेत करती हुई रचना ...आदरणीया तारों के प्रकाश में, अमावस में
पूर्ण चंद्रमा की रोशनी में
मैं पूर्ण यौवन पाता ,,,,,,,,,,,,,इन पंक्तियों में अमावास और पूर्ण चन्द्रमा के उपस्थित में पूर्ण योवन की बात समझने में मुझे थोड़ी दुबिधा हो रही है कृपया मार्गदर्शन करने का कष्ट करें ,,गंभीर रचना में छुपे इस गहन मर्म को कदाचित समझ नहीं पा रहा हूँ ,..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीया कुंती दी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति | सादर बधाई स्वीकारें
आदरणीया coontee जी
जब लेखनी सशक्त हो तो जो कुछ निकलेगा अच्छा ही निकलेगा i
आपकी लेखनी को प्रणाम i
आदरणीया कुंती जी , बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्ति हुई है , आपको हार्दिक बधाई !!!! मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ
स्वप्नलोक की सैर कराता
लेता हूँ सबको अपने बाहुपाश में.--------- बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ लगीं !!!!
आदरणीया कुन्ती जी बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति .... हार्दिक बधाई आपको
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