1)
आपस के संवाद में, कितने ही मंतव्य !
कुछ तो हैं संयत-सहज, अक्सर हैं वायव्य
अक्सर हैं वायव्य, शब्द से चोट करारी
वैचारिक प्रतिकार, अहं ने मति भी मारी
वाक्य-वाक्य में व्यंग्य, ढंग क्या हैं मानस के ?
हे ! मानव समुदाय, यही क्या सुख आपस के ?
2)
ऊँचा उठता है धुआँ, नीचे जाती धार
पर सचेत-मन व्यक्ति का, यथा उचित व्यवहार
यथा उचित व्यवहार, तभी वह संसारी हो
’सीख - सिखाना’ कर्म साधना सुखकारी हो
चर्चा, नहीं विवाद, इसी में सार समूचा
शिष्ट बुद्धि, सद्भाव, उठाते जन को ऊँचा !
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
एक मानव का दुसरे मानव से परस्पर वार्तालाप यदि अहम् भाव द्वारा नियंत्रित हो तो हर बात में वैचारिक मतभेद और व्यंग बाण प्रत्यक्ष या इंगित रूप में हृदय पर वार करते हैं... जो किसी भी परिस्थिति में सुखकर नहीं ......
एक श्रेष्ठ सचेत सांसारिक व्यक्ति द्वारा संतुलित व्यवहार ही अपेक्षित होता है.. किसी भी सकारात्मक चर्चा को जो मनबुद्धि दोनों के परिवर्धन का कारण हो सकती है उसे विवाद का रूप देना उचित नहीं..व्यावहारिक शिष्टाचार व सदभावनाओं से ही मनुष्य श्रेष्ठ होता है....
यह प्रस्तुति सिर्फ पाठन नहीं अपितु मनन चिंतन आचरण में ढालने के लिए आवश्यक वैचारिक तत्व उपलब्ध करा रही है
ऐसी वैचारिकता को शब्द देते बहुत सुन्दर सार्थक उद्देश्यपूर्ण भाव प्रवण कुण्डलिया छंद कहे हैं आदरणीय सौरभ जी
हृदय से बधाई इस वैचारिक प्रस्तुति के लिए.
सादर.
एक सुंदर सकारात्मक सन्देश देती रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय सौरभ जी
आदरणीय सौरभ सर आपकी हर रचना एक नये मानक स्थापित करती है जिसमें सुन्दर भावों और कहन का समावेश होता है एक रवानी होती है, इन कुण्डलिया छंद के लिये आपको हार्दिक बधाई
सादर,
आपस के संवाद में, कितने ही मंतव्य !
कुछ तो हैं संयत-सहज, अक्सर हैं वायव्य....
ऊँचा उठता है धुआँ, नीचे जाती धार
पर सचेत-मन व्यक्ति का, यथा उचित व्यवहार ...
चर्चा, नहीं विवाद, इसी में सार समूचा
शिष्ट बुद्धि, सद्भाव, उठाते जन को ऊँचा !
वाह आदरणीय सौरभ सर इतनी सुन्दर सीख देती कुण्डलियाँ.....परिवार को एक और नेक रखने में इस भाव की वाकई जरूरत रहती है बहुत बहुत आभार सर
जय हो जय हो
कैसी सुन्दर बात है कैसा सुन्दर छन्द
सीखें समझें हर विधा रहें चाक चौबंद
रहें चाक चौबंद करें हम बार विधागत
हो समरस व्यवहार करें चर्चा का स्वागत
निर्मल हो माहौल करें हम बातें ऐसी
जब हम हैं परिवार हमें फिर दिक्कत कैसी
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