वो तेरे नखरे तुझे कुछ खास करते हैं
आज भी हम तो मिलन की आस करते हैं
इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं
बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी
ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं
बेवफाई कर नहीं सकता सनम मेरा
लोग यूँ ही आजकल बकवास करते हैं
कौन आगे बोलता है अब सितमगर के
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं
उमेश कटारा
मौलिक एंव अप्रकाशित
Comment
सही कहा निलेश भाई साहब मुझे भी अटपटा लग रहा है पर कोई दूसरा लफ्ज सूझ नहीं रहा था
ग़ज़ल में काफ़िया "आस" है ..खास/ आस/ उपहास आदि ..इसमें लाश का होना ..काफ़िये के हिसाब से सही नहीं लगता है.
सादर
इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं
आदरणीय उमेश भाई , सुन्दर गज़ल कही है
कुछ तो कहा है गिरिराज जी मिसरे में -------साथ बैठकर भी लोग आजकल लाश कर देते हैं
आदरणीय उमेश भाई , सुन्दर गज़ल कही है , अपको बधाई ॥ आदरणीय अविनाश भाई का प्रश्न जायज़ लगता है ,वो मिसरा कुछ कह नही पाया है ॥
आ० उमेश कटारा जी सुंदर गजल के लिए बधाई , आखिरी लाइन जिसे आ० अविनाश जी ने भी इंगित किया है , को समझाने का आग्रह है । सादर
बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी
ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं......खुबसूरत
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं=????????
इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं..wah! Umesh ji...
बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी
ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं..........khoobsoorat
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