सूरज को पिघलते देखा है
वक्त के साथ रिश्तो को बदलते देखा है ।
दौलत के लिये अपनो को लडते देखा है ॥
लिये आग चढा था जो सुबह आसँमा पे
शाम उस सूरज को पिघलते देखा है ।।
तैरा था जो लहरो के विपरीत हरदम ।
साहिल पे उस जहाज को डूबते देखा है ।।
हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।
हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है ॥
बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे
उस शख्स को आज हाथ मलते देखा है ॥
माँज के बर्तन जिसने पाला था बच्चो को ।
घर के बाहर उस माँ को सोते देखा है ।।
इठलाया था जो देवो के शीश पे चढ के ।
उस फूल को पैरो से कुचलते देखा है ॥
मद लोभ अन्हकार से भला बचा है कौन ।
रावण कौरब कंस को मरते देखा है ॥
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ0 सौरभ जी सादर प्रणाम , ... आप के कथन के अनुसार रचना को अओर प्रभावी बनाने के लिये कोशिश करता रहुंगा ...आप का आशीष मिला तहे दिल से शुक्रिया ..
भाई बसंत जी, आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आप ग़ज़ल के मिसरों के वज़्न भी लिख दिया करें. ताकि पाठकों को ग़ज़ल को कथ्य ही नहीं अरुज़ के हिसाब से भी समझने में सहजता हो.
मैं भी आपकी प्रस्तुति को ग्यारह ग़ाफ़ के अनुसार पढ़ना चाह रहा था. लेकिन मुझसे कई जगह बन नहीं रहा है. यानि फ़ेलुन फ़ेलुन .. फ़ा के अनुसार वर्ण को साधता हुआ सफल नहीं हो पाया. यदि आप मिसरों का वज़्न कहें तो आसानी होगी.
कथ्य प्रभावी हैं लेकिन उनको प्र्स्तुत करने का माधयम भी सार्थक होना चाहिये.
शुभेच्छाएँ
आदरणीया कुंती जी आभार शुक्रिया धन्यवाद
आ0 श्री अविनाश जी ..सादर नमन .... रचना को आप का समय मिला ...तहेदिल से शुक्रिया धन्यवाद ..आभार
हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।
हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है ॥सुन्दर ,आदरणीय बसंत भाई ,
बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे
उस शख्स को आज हाथ मलते देखा है ॥.............बहुत खूब
प्रिय नेमा जी
आपका स्वागत है किन्तु अभिप्राय खुल कर आना चाहिए वर्ना हिंदी के हिसाब से अपार्थ दोष होता है i आपने मुझे सकारात्मक रूप से लिया इसके लिए आभार i आपकी रचनाधर्मिता सक्षमं है i आपको शुभकामनाये i
आ0 श्री गिरीराज जी बहुत बहुत आभार आप ने रचना को समय दिया ... शुक्रिया धन्यवाद
आ0 श्री गोपाल नारायण जी ..मेरा अर्थ ये था कि जिन घरो मे संस्कार की बाते होती थी पर वक्त से साथ उन घरो मे भी दरार पड सकती है ....... आप का आशीष मेरे लिये सौभाग्य है .. अन्यथा लेने के लिये नही ..... आभार आप ने समय दियारचना को तहे दिल से शुक्रिया ..... आशीष बनाये रखे ...............
बसंत नेमा जी
आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी है पर ---हुआ करती थी जहा संस्कारो की बाते ,हां आज मैंने उन घरो को टूटते देखा है i ----- क्या संस्कार इतनी ही बुरी वस्तु है i हम सभी जन्म के साथ ही संस्कारो से बध जाते है i आशा हा आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे i आपको अच्छी रचना के लिए बधाई i
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