2122 2122 2122 2122
गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं
दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं
पतझड़ों की साजिशों से, अब बहारों में भी देखो
हर शज़र मुरझा गया, पत्ते सभी झड़ने लगे हैं
अपने ख़्वाबों को खिलाऊँ क्या, पिलाऊँ क्या बताओ
कोई भूखा कोई प्यासा है, सभी मरने लगे हैं
जैसे गोली की किसी आवाज़ से भागे परिन्दे
मुफ़लिसी क्या आ गई रिश्ते सभी कटने लगे हैं
कुछ सियासी फैसलों से और बाक़ी मज़हबों से
देश वासी ख़ेमों- तबकों में सभी बटने लगे हैं
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं
एक दिन तो धूप चटकीली कभी हम देख पाते
धूप क्या निकली, उधर से अब्र फिर घिरने लगे हैं
वाकिये सारे पुराने में बहुत तल्ख़ी भरी थी
क्या करूँ मै सारे नग़्मों में वही ढलने लगे हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय अरुण भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति से प्रसन्न हूँ ॥ गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय गिरिराज जी सुंदर भावों के साथ रची गई गजल के लिए आपको बहुत बधाई ।
आदरणीय गिरिराज सर बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने मिसरों में थोड़ी उलझन जरुर हो रही है जैसा कि आदरणीय भ्राताश्री जी ने भी कहा है. खैर ग़ज़ल मुझे पसंद आई इस हेतु दाद कुबूल फरमाएं.
आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय गिरिराज भाई,
बहुत खूब ग़ज़ल कही है, यह पंक्तिया बेहद अच्छी लगीं . हार्दिक बधाई .
उन खतों का भी सहारा अब कहाँ बाक़ी है मुझको
याद भी ताज़ा नहीं, अब हर्फ़ भी मिटने लगे हैं
आदरणीया वंदना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
बहुत खूब ग़ज़ल कही है आदरणीय गिरिराज सर सभी अशआर तारीफ के क़ाबिल..बहुत बहुत बधाई आदरणीय
आदरणीय गणेश भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , मिसरे पर विचार देने के लिये , आगे से आपकी सलाह का भी ध्यान रखूंगा ॥
आदरणीय आशुतोष भाई , ॥ गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
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