२१२२ २१२२ २१२२ २१२
बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था
धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था
इक नदी थी नाव भी थी और था मौसम हसीं
साथ तुम थे बाग़ गुल थे इश्क मस्ताना भी था
यार की गलियों गया मैं फिर से लेकर आरज़ू
कुछ पुराने ख्वाब थे हर सिम्त वीराना भी था
कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही
बात में चीनी घुली थी दिल मगर काला भी था
वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम
ये जहाँ गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था
अमित दुबे
मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)
Comment
कैसे - कैसे लोग मिलते हैं यहाँ देखो सही
बात में चीनी घुली थी दिल मगर काला भी था
वो अज़ब ही दौर था हर बात पर हँसते थे हम
ये जहाँ गोया लतीफ़ा मस्त बचकाना भी था
वाह भाई छा गए ,,, बेहद शानदार
बहुत खूब ! प्रयासरत रहें
शुभेच्छाएँ
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय भाई अमित कुमार जी। । हार्दिक बधाई आपको
उम्दा
आदरणीय योगराज सर पुनः आपका हार्दिक अभिनन्दन,एवं आ० मीना जी ,आ० नादिर जी , विजय जी ,अन्नपूर्णा जी आप सभी का रचना अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार.आगे भी स्नेह बनाये रखें. सादर
सुंदर गजल बहुत बधाई आपको ।
संशोधनों के बाद ग़ज़ल और भी निखर गई है भाई अमित कुमार जी, हार्दिक बधाई प्रेषित है.
अदरणीय अमित जी शायद पहली बार मैंने आपकी रचना को पढ़ा और मंतमुग्ध सा हो गया, यही वजह रही की आपकी पुरानी पोस्ट को भी पढ़ने की जिज्ञासा हुयी बहुत खूब लिखते है आप ...
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