'मैं-तुम’ के शुभ योग से, 'हम’ का आविर्भाव
यही व्यष्टि विस्तार है, यही व्यष्टि अनुभाव
यही व्यष्टि अनुभाव, ’अपर-पर’ का संचेतक
’अस्मि ब्रह्म’ उद्घोष, ’अहं’ का धुर उत्प्रेरक
’ध्यान-धारणा’ योग, सतत संतुष्ट रखे ’मैं’
’प्रेय’ क्षुद्र व्यामोह, ’श्रेय’ निर्वाह करे ’मैं’
’तुम’ ऊर्जा, ’तुम’ प्राणवत, ’तुम’ ’मैं’ का विस्तार
गहन भाव संतृप्त यह, मानवता का सार
मानवता का सार, सदा जग ’तुम’ से सधता
’मैं’ कारक का सूच्य, जगत तो ’तुम’ से चलता
बहु-धारक का भाव, जिये ज्यों खगधारी द्रुम
संज्ञाएँ प्रच्छन्न, धारता हर संभव ’तुम’
’हम’ अद्भुत अवधारणा, ’हम’ अद्भुत संज्ञान
यह समष्टि के मूल का अति उन्नत विज्ञान
अति उन्नत विज्ञान, व्यक्तिवाचक का व्यापन
उच्च भाव संपिण्ड, ’अहं’ का भाव समापन
उच्च मनस का हेतु, ’भाव-कर्ता’ पर संयम
स्वार्थ तिरोहित सान्द्र, तभी हो ’मैं-तुम’ का ’हम’
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--सौरभ
(मौलिक और अप्रकशित)
Comment
मैं का विलय . व्यक्ति से समष्टि की ओर चलने का भाव, अति सुन्दर आ.सौरभ भाई
"मैं", "तुम" और "हम" शब्दों को छंद के माध्यम से शायद इससे बेहतर परिभाषित नहीं किया सकता था. कहन अद्वितीय और शिल्प एकदम सधा हुआ, यही तो किसी छंद रचना की सुंदरता मानी जाती है. ऊपर से इतनी परिष्कृत भाषा और सुन्दर शब्द संयोजन - वाह. हार्दिक बधाई स्वीकार करें आ० सौरभ भाई जी.
प्रेरक रचना आदरणीय सौरभ जी , सादर
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