विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत महिलाएं जिस तरह बड़े-बड़े पैकेज (हज़ारों ,लाखों में ) ले रही हैं उसे देख अधिकतर महिलाएं खुद को बहुत नीचा या कमतर समझती है जब उनसे पूछा जाता है कि वे क्या करती हैं ........और शर्म महसूस करती हैं.यह बताने में कि वे केवल हाउसवाइफ हैं .
यह इसलिए कि हाउसवाइफ का मतलब अक्सर यह समझा जाता है कि या तो वह घर में चूल्हा-चौका करती है या फिर सिर्फ किट्टी पार्टियों में अपना समय व्यतीत करती हैं ....... जबकि वास्तविक स्थिति इसके बिलकुल विपरीत होती है ...अधिकांश महिलाएं अपना समय अगली पीढ़ी यानि अपने बच्चों की परवरिश और अपने परिवार की देख रेख में बिताती हैं .
बहुत पहले लगभग अठारह वर्ष पहले जब मैंने अपनी लगी बंधी पी जी टी अध्यापिका की नौकरी छोड़ी तो बहुत से लोगों ने (मेरी माँ ने भी ) कहा ''इतनी पढ़ाई -लिखाई करके घर में बैठने का क्या फायेदा ...कुछ जॉब करती रहती तो पति की तनख्वा में इज़ाफा होता '' .यह बात आज भी ज़हन को कचोटती कुरेदती रहती है....क्या सिर्फ नौकरी करने वाली महिलायें ही घर में आय का अतरिक्त स्त्रोत होती हैं ???????
आपका क्या सोचना है ?
अगर मुझसे पूछें तो ......मैं कहूँगी कि प्रत्यक्ष आय की अपेक्षा अप्रत्यक्ष आय जो कि एक हाउसवाइफ द्वारा अर्जित की जाती है वह कई मायनों में बेहतर होती है ..... घर की व्यवस्था व् सञ्चालन के साथ-साथ बच्चों का लालन -पालन ..उनके संस्कार .....अपने ही निरिक्षण में उनकी पढ़ाई ( प्राइवेट ट्यूशन की अपेक्षा ) ... कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है तथा कहीं ज्यादा बचत भी कराती है ....एक तरह से यह निवेश है भविष्य को सँवारने के लिए
चलिए परिवार के लिए किये गए कार्यों को एक तरफ़ रख कर खुद महिला के व्यक्तित्व के बारे में सोचें .......... .तो पायेंगे कि अगर महिला चाहे तो घर में रह कर सभी कार्यों के साथ वह खुद को निखार सकती है अपने पसंदीदा क्षेत्रों में ...अपनी रूचि अनुसार वह अपने को पारंगत कर सकती है गर परिवार का साथ मिले........... जोकि काफी हद तक असंभव नहीं तो मुश्किल तो होता ही है एक फ़ुल टाइम नौकरी के साथ .
इसका एक उदाहरण यूँ दिया जा सकता है ......... स्कूल के अध्यापक -अध्यापिकाएं अधिकतर ....सिलेबस/पाठ्यक्रम ख़त्म कराने के क्रम में यह पूर्णतया भूल जाते हैं .कि उनका पढ़ाया हुआ बच्चों के दिमाग में भी जा रहा है या नहीं ......पढ़ाई के अतिरिक्त बच्चे के व्यक्तित्व का चहुमुखी विकास हो रहा कि नहीं ........ और ध्यान दें भी तो कैसे ... तेज रफ़्तार से बस एक ध्येय के साथ आगे बढ़ते जातें हैं कि समय सीमा में सिलेबस पूरा हो जाये ....और विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए ...........चाहे फिर उसमे किसी और प्रतिभा का विकास हो न हो .
उच्च ओहदे पे आसीन होने से आय तो अधिक होती है बेशक ..........किन्तु उसके लिए कितनी ही महत्वपूर्ण बातों की अनदेखी की जाती हैं ...इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है .......यहाँ मेरे कथन को अन्यथा न लें कि मैं कामकाजी महिलाओं के विरोध में कुछ कह रही हूँ
नौकरी न करते हुए भी एक पढ़ी लिखी महिला परिवार और अपने लिए बहुत कुछ करती है ..और कर भी सकती है ...जो आर्थिक योगदान के साथ मानसिक, समाजिक स्तर पे हो सकता है .....समय का सदुपयोग करते हुए उच्च शिक्षा लेने में शर्माना नहीं चाहिए ...हाँ सास -बहु के सीरियल्स को छोड़ कर टी वी/ प्रिंट मीडिया के द्वारा खुद को अप-डेट रखने का प्रयास करना चाहिए ......अपने भीतर के सृजनात्मक पक्ष को खोज कर उन्हें तराशने की कोशिश करनी चाहिए ......
इसके साथ साथ पुरुष को भी चाहिए कि वह इस उदासीन मानसिकता से बाहर निकले कि 'उसकी पत्नी कुछ नहीं करती' ...और आगे बढ़ के बिना यह सोचे कि वह जोरू का गुलाम है अपनी सहभागिनी के सृजनात्मक पक्ष को मजबूत करने में सहयोग देना चाहिए .
आज जीवन के इस पढाव पे जब मैं अपने को और अपने परिवार को देखती हूँ तो मुझे रत्ति भर भी अफ़सोस नहीं होता कि मैंने नौकरी छोड़कर हाउसवाइफ बनने का निर्णय लिया था .......
पूनम माटिया 'पूनम' ( "मौलिक और अप्रकाशित")
Comment
एक सकारात्मक सोच की सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद
अरुन मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है कि आप जैसे युवा ऐसे विचारों को सपोर्ट करते हैं क्यूंकि आगे चलके
आपको या आपके आयु के मित्रों को इन्ही स्तिथियों से गुज़रना है .....
बिकुल सही कहा हम वास्तविक जीवन में दिल्ली में कई बार रु ब रु मिल चुके हैं और मैंने आपके काव्य पाठ को सुना है
स-स्नेह धन्यवाद मेरे लेखन और सोच को सरहाने के लिए
"हाउसवाइफ कहलाने में शर्म क्यूँ ? यह तो गर्व की बात है" यह शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है.
पूनम जी एक सार्थक आलेख साझा पढ़वाने हेतु हार्दिक आभार आपका. आपने अपने निजी अनुभवों से प्राप्त कई बातों को बहुत ही सुन्दरता से उकेरा है.
इसके साथ साथ पुरुष को भी चाहिए कि वह इस उदासीन मानसिकता से बाहर निकले कि 'उसकी पत्नी कुछ नहीं करती' ...और आगे बढ़ के बिना यह सोचे कि वह जोरू का गुलाम है अपनी सहभागिनी के सृजनात्मक पक्ष को मजबूत करने में सहयोग देना चाहिए .
इस पंक्ति में कही गई बात मुझे अत्यधिक पसंद आई. आपको मैं आभासी दुनिया के साथ साथ निजी तौर पर भी जानता हूँ. आपकी सकारात्मक सोच नेक विचार से मैं अवगत हूँ. इस सुन्दर आलेख हेतु हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद.
जितेन्द्र 'गीत' जी सत्य वचन ......... हार्दिक धन्यवाद आपका
परिस्थिति को देखते हुए आत्म विश्लेषण कर सही निर्णय लेने से ही जीवन सफल बनता है, बहुत सार्थक आलेख प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें आदरणीया पूनम जी
सूबे सिंह सुजान जी ..धन्यवाद जो आपने सराहा मेरे दृष्टिकोण को ..... और हाँ सच ही है कि स्वयं स्त्री को ही सर्वप्रथम अपने प्रति राय बदलनी चाहिए
डाक्टर प्राची सिंह जी .....सर्वप्रथम आपका आभार कि आपने मेरे आलेख को पढ़ा .....द्वितीय कि आपने पहले कमेन्ट बॉक्स बंद होने के बावजूद .दोबारा कोशिश की ...कि आपके विचार मुझतक और सभी मित्रों /पाठकों तक पहुंचे
मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है कि विषय और विषय वस्तु .......दोनों पर ही आपने विस्तृत प्रतिक्रिया दी ......
.....मैं भी यही मानती हूँ कि पढ़ाई केवल कमाई का जरिया नहीं ....और मुझसे जियादा मेरे पति ये मानते हैं कि उच्च शिक्षा इंसान को ग्रूम करती है ......मैं आज M.Sc ...B.Ed...aur MBA करके भी हाउसवाइफ हूँ तो इसमें गौरव ही अनुभव होता है जब मेरे बच्चे (बेटियां ) बिना किसी ट्यूशन के अपने क्षेत्र में ऊँचाइयाँ छू रही हैं ....चाहे घर हो या स्कूल /कॉलेज
आपने सही कहा कि //हर महिला की ज़िंदगी की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, तो हाउसवाइफ्स क्यों खुद को कामकाजी महिलाओं से कम्पेयर करें और किसी भी तरह की हीन भावना रखें..// हीन भावना तब आती है जब कुछ सृजनात्मक कार्य नहीं होता .....पर मैं मानती हूँ तब भी एक होममेकर घर के विभिन्न क्षेत्रों को तो कुशलता से सम्भालती ही है .....तो फिर क्यूँ शर्म ?
आशा है कि आगे भी हम विभिन्न पहलुओं पे सकारात्मक चर्चा करते रहेंगे .धन्यवाद
पूनम मटिया जी, आपकी बात की तारीफ की जानी जरूरी है। यह सत्य है कि आज तक महिलायें घर, परिवार को चलाने में मुख्य भूमिका निभती रही हैं। यह सोच स्वंय औरतों को भी बदल लेनी चाहिये और अपने काम को बताना चाहिये।
आज सुबह भी ये आलेख पढ़ा था और बहुत कुछ लिखना चाहती थी पर इस पर कमेन्ट बॉक्स बंद था सो कर न सकी..
आ० पूनम जी ये शायद आपका पहला ही आलेख है जो मैं इस मंच पर पढ़ रही हूँ, और इसमें आपने हर महिला से जुडी बात बहुत संतुलित दृष्टिकोण से की है..इसलिए आपको हृदयतल से बधाई प्रेषित करती हूँ..
''इतनी पढ़ाई -लिखाई करके घर में बैठने का क्या फायेदा ...कुछ जॉब करती रहती तो पति की तनख्वा में इज़ाफा होता ''..........क्या शिक्षा की उयोगिता सिर्फ इतनी ही है की वो आय कमाने का जरिया बन सके?..................यकीनन नहीं! शिक्षा तो एक व्यस्थित सुलझी सोच देती है, एक नज़रिया देती है..हर पहलू को देखने समझने का, और रचनात्मकता से, सृजनशीलता से हर कार्य को करने की सीख भी देती है.
हमारी संस्कृति में तो कहा जाता है की यदि एक महिला शिक्षित होती है तो तीन पीढ़ियाँ शिक्षित होती हैं, सँवरती हैं ...
हर महिला की ज़िंदगी की परिस्थितियाँ अलग होती हैं, तो हाउसवाइफ्स क्यों खुद को कामकाजी महिलाओं से कम्पेयर करें और किसी भी तरह की हीन भावना रखें..
//उच्च ओहदे पे आसीन होने से आय तो अधिक होती है बेशक ..........किन्तु उसके लिए कितनी ही महत्वपूर्ण बातों की अनदेखी की जाती हैं ...इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है ..//
बिलकुल सही बिंदु पर कलम रखी है आपने आ० पूनम जी, कामकाजी महिलाओं को अपनी ज़िंदगी में बहुत से समझौते करने पड़ते हैं.. सबसे बड़ी बात तो अक्सर समय की कमी.... वो अपने परिवार को उतना समय ही नहीं दे पातीं...
कई जगह तो कामकाजी महिलाएं दोहरे काम के बोझ तले दबी होती हैं, पूरा घर का काम और बाहर का भी...
तो कई जगह ईगो क्लैशेज़ होने आम हैं...
ऐसे में अधिक महत्वपूर्ण ये हो जाता है की वो परिवार को, बच्चों को भी चाहे कम ही समय दें पर वो पर क्वालिटी टाइम हो .. और उनकी हर बात पर गौर भी ज़रूर करें.
हाउसवाइफ्स का भी परिवार के सभी सदस्यों के साथ अपने स्वास्थ्य को ध्यान रखना ज़रूरी है, देखा जाता है की वो घर के कामों में इतना उलझ जाती हैं की उन्हें देश-दुनिया की कोइ खबर ही नहीं रहती.... और कहीं न कहीं वो व्यक्तित्व विकास में स्वयं ही पिछड़ने लगती हैं... और किटी कल्चर में रम जाने वाली हाउसवाइफ्स शायद ज़िंदगी को सिर्फ फैशन, घूमना-फिरना, दोस्ती, पारिवारिक सास बहू अड़ोसी पड़ोसी की गौसिप्स.. ऐसा ही कुछ समझती हैं.... यहाँ बात सिर्फ नज़रिए की ही आती है
प्रोग्रेसिव अप्रोच की महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी ज़िंदगी को एक सुलझे स्वस्थ नज़रिए से ही देखती है... और अपनी हर ज़िम्मेदारी को पूरी निष्ठा से, कर्तव्यपरायणता से ही निभाती हैं..
यहाँ पति का कोपरेटिव होना बहुत अहम् है, जहां कामकाजी महिलाओं के पतियों को उनका सहयोग घर के कार्य से लेकर उन्हें उनकी स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करने के लिए करना पढता है... वही घरेलू महिलाओं के पतियों की ज़िम्मेदारी भी उनके व्यक्तित्व के सृजनात्मक पक्ष को सराह कर प्रोत्साहित करने की होती है
आपके नज़रिए का मैं सम्मान करती हूँ की आपने नौकरी छोड़ कर अपने परिवार को पूरा समय देकर हाउसवाइफ बनने का निर्णय लिया..
महिला चाहे कामकाजी हो या घरेलू एक बात तो भारतीय समाज में चिरंतन सत्य है कि "परिवार से बढ़ कर कभी भी कुछ और नहीं होता"
इस सुन्दर आलेख के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को सांझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया पूनम जी
सादर.
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ..... आत्मिक आभार ...मैंने जो महसूस किया आप सबके साथ साझा किया
.मैं मानती हूँ कि आज जितने क्षेत्रों में सक्रीय हूँ वह सिर्फ इसलिए कि मैं सुबह नौ से शाम पांच की नौकरी में बंधी नहीं हूँ
वर्ना तो जीवन एक ढर्रे पे चलती चली जाती .नया करने का समय नहीं मिल पाता जैसे कि मैंने अपनी ही सहकर्मियों के
जीवन में देखा है ..........और इस सब के साथ घर परिवार का साथ और उत्साहवर्धन बेहद जरूरी अंग रहा है और रहना भी
चाहिए .....
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