खोटा सिक्का
चले थे खुद को भुनवाने
दुनिया के इस बाजार में.
पर खोटा सिक्का मान
ठुकरा दिया ज़माने ने
सोचा ! मुझमें ही कमी थी
या, फिर वक्त का साथ न था
समझ न पाये ,और चुप रह गए
पर चैन न आया
और चल पडे दुनिया को
जानने और पहचानने
देखा ! तो जाना ,
दुनिया कितनी अजीब है
झूठ,मक्कारी और खुदगर्ज़ी
के पलड़े में हर रोज
इंसान तुल रहा
पलड़ा जितना भारी
इंसान उतना ही ऊँचा
मेरे पास तुलने को
कुछ न था
इसलिए नकारा गया
खोटा सिक्का जान
ठुकराया गया ।
खोटा ही सही
पर खुश हूँ
दुनिया के इस झूठ
और मक्कार भरे
बाजार में
मुझे नहीं बिकना
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महेश्वरी कनेरी...मौलिक/अप्रकाशित
Comment
झूठ,मक्कारी और खुदगर्ज़ी
के पलड़े में हर रोज
इंसान तुल रहा
पलड़ा जितना भारी
इंसान उतना ही ऊँचा
मेरे पास तुलने को
कुछ न था
इसलिए नकारा गया............
बहुत गहरी बात करती आपकी अभिव्यक्ति सचमुच बहुत पसंद आयी
हार्दिक बधाई आ० माहेश्वरी कनेरी जी
अच्छी भाव पूर्ण रचना है। बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया महेश्वरी जी अच्छी प्रस्तुतीकरण है किन्तु मेरे भीतर का पाठक संतुष्ट नहीं हुआ, खोटा सिक्का चल जाता तो जरुर मैं संतुष्ट होता. अब समय परिवर्तन चाहता है यदि मौन रहे तो न वर्तमान रहेगा और न ही भविष्य. इस सुन्दर प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
मैं-कारक शैली की इस रचना के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएँ.
सतत अभ्यासरत रहें.
एक बात और, नाकारा और नक्कारा में अंतर होता है, आदरणीया.
सादर
हम जैसे हैं अच्छे हैं .... बहुत सुन्दर रचना , बधाई आप को | सादर
आदरणीया महेश्वरी जी बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
आपकी इस सुंदर प्रस्तुति पर सादर बधाई .... |
अच्छी प्रस्तुतिकरण है....हर तरफ़ चाहे दुनिया के किसी कोने में इंसान जाएं....सर्वत्र ही गुण की पूजा होती है.....खोटे सिक्के का कोई मोल नहीं..सादर.
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