नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥
मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥
पश्चिम संस्कृति जी रहे, हम भूले निज मान।
कहते हम संतान कपि, जबकि हैं हनुमान॥
निज गौरव को भूलकर, बनते मार्डन लोग।
ये भी क्या मार्डन हुए, पाल रहे बस रोग॥
अपने घर में त्यक्त है, वैदिक ज्ञान महान।
महा मूढ़ मतिमंद हम, करते अन्य बखान॥
लौटें अपने मूल को, जो है सबका मूल।
पोषित होता विश्व है, सार बात मत भूल॥
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
भाई विंध्श्वरीजी, पहली बात, क्या आपने जनवरी माह के छंदोत्सव की भूमिका को सही ढंग से पढ़ा लिया है ? या, आयोजन कीभूमिका दोहा और रोला छंदों पर आधारित होने के कारण उसके प्रति कोई जिज्ञासा ही नहीं बनी ?
जो कुछ आदरणीया प्राची जी ने उद्धृत किया है क्या उस पर उस भूमिका में चर्चा नहें हुई है ? उसके प्रति अगाह नहीं किया गया है ? कृपया देख लीजियेगा
और, सिर्फ़ कथ्य पर वाह वाह क्या करूँ. यह तो हमें मालूम ही है कि आप सामाजिक विडम्बनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं. तभी ऐसे कथ्य आपसे अपेक्षित भी हैं.
शुभेच्छाएँ
नैतिक मूल्यों के पतन पर बहुत सुन्दर दोहावली प्रस्तुत की है प्रिय विन्ध्येश्वरी जी... इस उन्नत भाव प्रवण प्रस्तुति के लिए दिली बधाई.
अब मैं आपके एक दोहे के माध्यम से शिल्प पर भी कुछ कहने से खुद को रोक नहीं पा रही हूँ..
नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥
मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥
... प्रस्तुत दोहे के शिल्प को यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो-
नैतिकता के पतन से , विषम चरण का अंत १११ या २१२ से किये जाने की मान्यता है पर यहाँ पतन का उच्चारण 12 होने के कारण विषम चरण का अंत १२२ जैसा प्रतीत हो रहा है
मात- पिता सम्मान नहि , सम्मान्नहि जैसा उच्चारण हो रहा है जिससे शाब्दिक ध्वनि का दोष बन रहा है और दोनों शब्दों का अलग अलग उच्चारण स्पष्ट नहीं हो रहा.
ये कुछ सूक्ष्म बाते हैं जिन पर आजकल मंच पर यदा कदा चर्चाएँ होती रहती हैं.. यहाँ सांझा करना निश्चय ही आपको लाभान्वित करेगा ऐसी उम्मीद है.
शुभकामनाएं
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