जीवन दर्शन पर ३ मुक्तक :
1.है पानी का बुलबुला ....
है पानी का बुलबुला ....ये जीवन तेरा जीव
बड़े भाग से मानव का ...मिला तुझे शरीर
आती जाती साँसों का ...नहीं कोई विश्वास
आत्म सुख के वास्ते हर ले किसी की पीर
2.मूर्ख मानव काया पे …
मूर्ख मानव काया पे ....तू काहे करे गुमान
नश्वर इस संसार में .....व्यर्थ है अभिमान
जान के भी अंजाम को क्योँ बनता अंजान
तू माया की नगरी में पलभर का मेहमान
3.जन्म मरण तो चक्र है ....
जन्म मरण तो चक्र है और चक्र है बेअन्त
इस जीवन का दोस्तों कहीं आदि है न अंत
हाड मांस के पिंजर ने मिट जाना इक दिन
मोह माया में उलझ कर भूल न प्रभु का पंथ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
// क्षमा चाहता हूँ नेट ठीक न होने के कारण मैं आपका आभार समय पर व्यक्त नहीं कर पाया //
ये किस बात की क्षमा मांग रहे हैं भाई सुशील सरना जी...:) आपने परस्पर हुई चर्चा और सीखने सिखाने के क्रम में हुए सुझावों की सार्थकता को मान दिया... यही क्या कम है.
हम सभी यूं ही परस्पर समवेत सीखते चलें..यही तो मंच के उपलब्ध होने की सार्थकता है..
सादर.
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी मुक्तकों पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। कृपया अपना स्नेह बनाये रखें। क्षमा चाहता हूँ नेट ठीक न होने के कारण मैं आपका आभार समय पर व्यक्त नहीं कर पाया। धन्यवाद
आदरणीया प्राची सिंह जी आपके द्वारा मुक्तक में किया गया संशोधन वास्तव में सराहनीय है … आपके द्वारा किया गये श्रम हेतु मैं आपका आभारी हूँ। कृपया अपना स्नेह बनाये रखें। क्षमा चाहता हूँ नेट ठीक न होने के कारण मैं आपका आभार समय पर व्यक्त नहीं कर पाया। धन्यवाद
प्रस्तुत मुक्तकों पर सार्थक और निरर्थक दोनों तरह की बातें हुई हैं.
सार्थक बातों के क्रम में आदरणीया प्राचीजी द्वारा प्रस्तुत मुक्तकों में से एक को दोहा मुक्तक का रूप दिया जाना अत्यंत भला लगा. उनके प्रति आभार.
आदरणीय सुशील जी, इस प्रस्तुति के लिए सादर आभार
आदरणीय सुशील सरना जी
मेरे कुछ कहे को मान देने के लिए धन्यवाद..
आपके लिखे एक मुक्तक में कुछ बदलाव किये हैं ज़रा देखिये...
है पानी का बुलबुला ....ये जीवन तेरा जीव ............ है पानी का बुलबुला , भंगुर क्षणिक शरीर
बड़े भाग से मानव का ...मिला तुझे शरीर ............ बड़भागी यह जन्म है , कहते संत फ़कीर
आती जाती साँसों का ...नहीं कोई विश्वास ............ आती जाती श्वास का , नहीं तनिक विश्वास
आत्म सुख के वास्ते हर ले किसी की पीर ............ आत्मोन्नति की राह पर, हर ले सब की पीर
आदरणीय नीरज मिश्रा ''प्रेम'' जी मुक्तकों पर आपकी प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार कथन आपका भी सत्य है कथन हमारा भी सत्य है अब इसको अमल में लेना न लेना स्वयं पर निर्भर करता है .... आपके स्नेह का हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ.प्राची सिंह जी मुक्तकों पर आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। आपका आभारी होऊँगा यदि आप मुक्तकों में सुधार कर मार्गदर्शन करेंगी ताकि भविष्य में पुनः इस त्रुटि से बचा जा सके। … हार्दिक आभार
सोचता हूँ कविता पर बोलूं कि भाव पर ही बोलता हूँ क्यों कि मै शरीर वादी नही
आत्मा वादी होना ज्यादा पसंद करता हूँ कविता का शिल्प कविता का शरीर
और कविता का भाव कविता कि आत्मा होती है इसलिए ये ध्यान में रखें शरीर
बिना आत्मा का अस्तित्व है पर आत्मा बिना शारीर का कोई अस्तित्व नही
आते हैं आपकी कविता पर बेशक बहुत सुन्दर लिखी है जो कुछ लिखा है सत्य लिखा है
पर ये सिर्फ बातें होकर रह गयी हैं सोचने वाली बात ये है हम इन्हे अपने जीवन में कितना मूल्य देते हैं
कबिरा खड़ा बज़ार में लिए लुकाठी हाथ ।
जो घर बारे आपना चले हमारे साथ ।
सब कबीर के इस दोहे से सहमत हैं पर ऐसा कर कौन पाता है ।
क्षणभंगुर जीवन और जनम मरण के चक्र पर सुन्दर मुक्तक प्रयास हुआ है आ० सुशील सरना जी
गेयता/प्रवाह के लिए शब्द समुच्चयों में कलों के निर्वहन व तुकांतता के लिए थोडा सा और शिल्पगत प्रयास अवश्य ही प्रस्तुति को और निखारेगा.
शुभकामनाएं
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
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