पर्वत की तुंग
शिराओं से
बहती है टकराती,
शूलों से शिलाओं से,
तीव्र वेग से अवतरित होती,
मनुज मिलन की
उत्कंठा से,
ज्यों चला वाण
धनुर्धर की
तनी हुई प्रत्यंचा से.
आकर मैदानों में
शील करती धारण
ज्यों व्याहता करती हो
मर्यादा का पालन.
जीवन देने की चाह
अथाह.
प्यास बुझाती
बढती राह.
शीतल, स्वच्छ ,
निर्मल जल
बढ़ती जाती
करती कल कल
उतरती नदी
भूतल समतल
लेकर ध्येय जीवनदायी
अमिय भरे
अपने ह्रदय में
लगती कितनी सुखदायी.
यहीं होता नदी का
सामना,
मनुजों की
कुत्सित अभिलाषा से
चिर अतृप्त
निज स्वार्थ पूरित
अंतहीन, आसुरी पिपासा से
नदी का अस्तित्व होता
तार तार
हर गांव, हर नगर
हर बार, बार बार.
करके अमृत का हरण,
करते गरल वमन,
भर देते इसमें, असुर
समुद्र मंथन से मिले
सारे जहर
कोई नीलकंठ नहीं,
कोई तारण हार नहीं,
रोती , तड़पती ,
कभी गुस्साती , फुफकारती
नदी,
अपने मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे
मिलती अपने चिर प्रतीक्षित प्रेमी से,
उसका करता स्वागत, सागर
अपनी बाहें फैलाकर.
सागर एक सच्चा प्रेमी है,
शामिल कर लेता है उसका अस्तित्व
स्वीकारता है उसे
अपने भीतर,
सम्पूर्णता में
उसकी सभी सड़ांध के बाबजूद.
प्रेम में अभीष्ट है समपर्ण
अपनी पूर्णता के साथ.
तिरोहित हो जाती नदी की सारी व्यथा.
सागर की विशालता में हो जाती गौण,
विस्मृत कर देती अपनी दु: कथा.
नदी के ह्रदय में पुनः उठती हुक
जीवन देने की,
पुत्र मिलन की इच्छा
हो जाती बलवती
वह पुनः उठती
बनकर मेघ
पर्वतों में बरसती
पुनः बनती नदी
नदी माँ है.
माता कुमाता नहीं होती.
... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
नदी के जीवन चक्र का सुंदर शब्दों में जीवंत वर्णन... बहुत अच्छी कविता के लिए बधाई आपको/सादर
एक आदर्श रचना....कहते हैं कि बहते पानी में दोष नहीं होत......वैसे ही माता कभी कुमाता नहीं होती.
आदरणीया वंदना जी सादर धन्यवाद .
आदरणीया डॉ प्राची सिंह साहिबा आपका हार्दिक आभार ..
आपका आभार आदरणीय बृजेश जी .. अपूर्णता की ओर ध्यान दिलाने का शुक्रिया और इस पोस्ट पर आने का भी :) ..
स्वीकारता है उसे
अपने भीतर,
सम्पूर्णता में
उसकी सभी सड़ांध के बाबजूद.............. इन पंक्तियों से मेरा सन्दर्भ जिस स्थिति से है , वह मैं बताने की कोशिश करता हूँ. ... जैसे एक नव विवाहिता स्त्री है , बहुत सुन्दर, बहुत चंचल .... उसका पति जो उसका प्रेमी भी है उससे बहुत प्यार करता है , वह स्त्री एक दिन अपने मायके जाती है , वहां उसके साथ कुछ अनहोनी होती है , दुराचार होता है , अब उसका पति/प्रेमी उसे स्वीकारने से इनकार कर देता है , जबकि वह स्त्री आज भी उस पुरुष से वैसा ही प्रेम करती है , उसकी भावनाएं उतनी ही पवित्र है , लेकिन उसका पति उसे अपनाने से इनकार करता है . ऐसे में वह एक सच्चा प्रेमी नहीं हुआ . अगर वह सच्चा प्रेमी होता तो उसे सस्नेह स्वीकार लेता और उसके दुःख को कम करने की कोशिश करता है .. :)
नदी की चिर परिचित यात्रा को आपके शब्दों ने एक नए स्वरूप में अभिव्यक्त किया है आदरणीय नीरज जी बहुत२ बधाई
पाठक, नदी के साथ बहते बहते सागर तक फिर और आगे पूरा हाईड्रौलोजिकल साईकल भी घूम आये इस अभिव्यक्ति में...
कविता के कुछ कुछ अंश बेहद प्रभावी हुए हैं ...जैसे
यहीं होता नदी का
सामना,
मनुजों की
कुत्सित अभिलाषा से
चिर अतृप्त
निज स्वार्थ पूरित
अंतहीन, आसुरी पिपासा से
या फिर ..
मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे
मिलती अपने चिर प्रतीक्षित प्रेमी से,
उसका करता स्वागत, सागर
अपनी बाहें फैलाकर.
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर
आ. मीना पाठक जी सादर धन्यवाद .
बहोत बहोत सुन्दर ..... सादर बधाई
//स्वीकारता है उसे
अपने भीतर,
सम्पूर्णता में
उसकी सभी सड़ांध के बाबजूद//............. जैसा कि रचना की शुरूआती पंक्तियों में आपने भी इशारा किया है, नदी अपने-आप में सड़ांध उत्पन्न नहीं करती, जबकि ये पंक्तियाँ यही सन्देश देती सी लगती हैं.
अच्छी रचना है. इसे और कसा जा सकता था.
बहरहाल, इस अभिव्यक्ति पर आपको हार्दिक बधाई!
सादर!
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