212 212 212 212
गाँव से दूर जब से ठिकाना हुआ
बंदिशे काम उसका बहाना हुआ
आस में मुन्तज़िर आँखें दर पे टिकी
उसकी सूरत को देखे ज़माना हुआ
गोद में खेल जिसकी पला था कभी
गाँव वो आज कैसे बेगाना हुआ
जानते हैं सभी कबसे बदली नजर
जब से गैरों के घर आना जाना हुआ
जो झुलाता तुझे प्यार से डाल पर
वो शज़र देख कितना पुराना हुआ
गाँव में क्या नहीं था तेरे वास्ते
क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ
जल गया है तेरे गाँव का नीड़ वो
बस इसी खब्र से ही बुलाना हुआ
सोच तुझको मिला क्या यहाँ से निकल
बस सुकूने दिलों का मिटाना हुआ
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० सौरभ पाण्डेय जी, आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया से ग़ज़ल धन्य हुई लिखना सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभार आपका.
जितेन्द्र गीत जी ग़ज़ल पर उत्साह वर्धन करती हुई प्रतिक्रिया से हर्षित हूँ तहे दिल से आभार आपका
लक्ष्मण धामी जी तहे दिल से आभारी हूँ
आ० डॉ.आशुतोष जी, ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर प्रसन्न हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई ,तहे दिल से आभार आपका
प्रिय वंदना जी बहुत- बहुत शुक्रिया.
ब्रजेश जी आपकी सुकून देती हुई प्रतिक्रिया हेतु तहे दिल से आभार.
आ० अन्नापूर्णा जी तहे दिल से आभार आपका.
इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया..
बेहतरीन गजल आदरणीया राजेश जी, यह शेर खास पसंद आये
गाँव में क्या नहीं था तेरे वास्ते
क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ
जल गया है तेरे गाँव का नीड़ वो
बस इसी खब्र से ही बुलाना हुआ
आदरणीया राजेश जी बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल हुई है ...एक एक शेर काबिले तारीफ़ !
जो झुलाता तुझे प्यार से डाल पर
वो शज़र देख कितना पुराना हुआ...! बचपन की याद दिला दी आपने !
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