रात पर जय प्राप्त कर जब जगमगाती है सुबह।
किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।
त्याग बिस्तर, नित्य तत्पर, एक नव ऊर्जा लिए,
लुत्फ लेने भोर का, बागों बुलाती है सुबह।
कालिमा को काटकर, आह्वान करती सूर्य का,
बाद बढ़कर, कर्म-पथ पर, दिन बिताती है सुबह।
बन कभी तितली, कभी चिड़िया, चमन में डोलती,
लॉन हरियल पर विचरती, गुनगुनाती है सुबह।
फूल कलियाँ मुग्ध-मन, रहते सजग सत्कार को,
क्यारियों फुलवारियों को, खूब भाती है सुबह।
इस मधुर वेला में हम भी, क्यों न उठकर चल पड़ें,
मन उतारें रंग जो, हर दिन दिखाती है सुबह।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कल्पना जी, आप अनन्या हैं. इतना स्वत:स्फूर्त वर्णन कि पढ़कर लगा मैं सुबह की बेला में बाग में ही घूम रहा हूँ. नमन आपको.
वाह! वाह! वाह!
ऐसे जन्म लेती है ग़ज़ल बिलकुल सहजता से
बहुत सुन्दर
शुभकामनाएं
रात पर जय प्राप्त कर जब जाग जाती है सुबह।
किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।.....लजवाब .कल्पना जी हार्दिक बधाई.
वाह, वाह!! सबको ताज़गी दे दी न मैंने! आज सुबह घूमते-घूमते ही लिख डाली और उसी समय आकर पोस्ट कर दी। आप सबका हार्दिक आभार। सादर
यहाँ नीचे ताजगी शब्द को लेकर जरूर कुछ गड़बड़ है :))))))) इस लिए मैं ये शब्द नहीं लिखूंगी ..आ० कल्पना जी बहुत सुन्दर प्रस्तुति स्फूर्ति आ गई ...बहुत सुन्दर सभी अशआर अपना प्रभाव छोड़ते हैं ढेरों दाद इस हिंदी ग़ज़ल पर
आदरणीया कल्पना दी खुबसूरत ताजगी भारी गजल
बहुत सुन्दर आदरणीया कल्पना दी ..सादर बधाई
बहुत खूबसूरत लिखा आपने ताज़गी
गयी पड़ कर
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