गहराइयाँ
घड़ी की दो सूइयाँ
काली गहराइयाँ
समय के कन्धों पर
उन्मुक्त
फिर भी बंधी-बंधी
पास आईं, मिलीं
मिलीं, फिर दूर हुईं
कोई आवाज़ .. टिक-टिक
बींधती चली गई
था भूकम्प, या मिथ्या स्वप्न
अब वह घड़ी पुरानी रूकी हुई
उखड़े अस्तित्व की छायाओं में
लटक रही है बेजान ।
समय की दीवार
रूकी धड़कन का एहसास ...
और वह सूइयाँ
कोई पुरानी भूली हुई कहानी-सी
पहचाने अपनेपन से दूर
बुझे हुए तारे के टूटे हुए हिस्सों-सी
जैसे तुम और मैं ...
यह दरमियानी फ़ासले
घड़ी की दो सूइयाँ
काली गहराइयाँ ...
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
समय की दीवार
रूकी धड़कन का एहसास
और वह सूईयाँ
कोई पुरानी भूली हुई कहानी-सी
पहचाने अपनेपन से दूर
बुझे हुए तारे के टूटे हुए हिस्से
जैसे तुम और मैं ... बहुत सुन्दरता से भावों को व्यक्त किया . बहुत बढियां कविता बनी है .. बधाई आदरणीय .
//लाजवाब ....बहुत ख़ूब ....लाजवाब शब्द, भावपूर्ण प्रस्तुति//
रचना के भाव और शब्द आपको अच्छे लगे, मेरी कलम सार्थक हुई। आपका आभार, आदरणीया प्रियंका जी।
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय श्याम नारायण जी।
सच में बहुत गहराई है सुन्दर अतीव सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय हार्दिक बधाई आपको////////// सादर
आदरणीय सौरभ भाई,
इस रचना पर सभी प्रतिक्रियाओं में से सर्वप्रथम मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ .... यह केवल इसलिए नहीं कि आपने सदैव समान इतना मान दिया है, परन्तु इसलिए कि मान के संग आपसे सुझाव भी मिला है। हार्दिक आभार मार्गदर्शन एवं इतनी सराहना के लिए।
स्नेह बनाये रखें, आदरणीय।
विजय निकोर
इस गहराई में बहुत गहराई है आदरणीय निकोरजी अद्भूत प्रस्तुति ढेरो बधाई
हर बार की तरह ये प्रस्तुति भी बहुत अच्छी लगी आ० विजय जी| रचना में जिस जगह अटकी वो आ० सौरभ जी ने पहले ही इंगित कर दी हैं उनको दुरुस्त करना आपके लिए कोई बड़ी बात नहीं ,हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर.
आप इतने समृद्ध विचारक हैं कि किसी शब्द को बिम्ब बना कर कविता के रूप में प्रस्तुत कर देने की आपमें अद्भुत क्षमता है आदरणीय. आपकी करीब-करीब सभी रचनाओं पर पाठकों की भावुक टिप्पणियों से सहज ही समझा जा सकता है. साथ ही आप अत्यंत उर्वर लेखक भी हैं.
पाठकों का अपने लेखक पर इतना अदम्य विश्वास लेखक को कई तरह के दायित्वों से भी बोझ देता है.
इन्हीं में से एक है, व्याकरण की दृष्टि से रचनाओं को अपनी पूरी क्षमता से निर्दोष रखने का लेखकीय प्रयास. इसके अनुसार कुछ बातें साझा कर रहा हूँ -
हिन्दी भाषा में बहुवचन बनाते समय सुई को सुईयाँ न कर सुइयाँ करते हैं.
शब्द कोई के बाद संज्ञा सदा एकवचन में होती है. इस कारण कोई काली गहराइयाँ अशुद्ध होगा आदरणीय.
इसका शुद्ध रूप कोई काली गहराई होगा.
विश्वास है, मैं तथ्यों को नम्रतापूर्वक प्रस्तुत कर पाया.
बहरहाल, आपकी इस कविता के लिए बधाई...
सादर
उन्मुक्त
फिर भी बंधी-बंधी.....आदरणीय सिर्फ आपकी कलम से ही सम्भव है...साधुवाद.
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