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इस जीवन में दुख ही दुख है, गृह त्याग चलें वन गौतम नाई।
फिर भी संग छूट नहीं दुख से, घर बैठ सुता सुत नारि रोवाई॥
मन सूख रहा जग आतप से, अब नैन वरीष गये हरियाई।
बहु भांति विचार किया हमने, पथ कंटक झेल रहो जग भाई॥

यदि तृप्त नहीं मन तो भटके, जब तोष हुआ दुख तो मिटता है।
पर तृप्त करें किस भांति इसे, यह तो बिन बात के भी हठता है॥
हठवान बड़ा मन मान नहीं, भगवान कहो तुम ही समझाई।
पद पंकज में जब ध्यान लगे, तब छोड़ रहा मन है हठताई॥

मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।
कहता मन लोलुप जो तुम से, उसके सुर में सुर आप दियो है॥
निज आत्म सुनो सच वो कहता, 'वह ईश्वर अंश' कहे बुध भाई।
अनमोल बड़ा यह जीवन है, इसको नर वीर न व्यर्थ गवाई॥

गह सार रहें जग में डट के, दुख झंझट से अब दूर भगें ना।
जग में जब ईश्वर जन्म दिये, तब ईश दिये कुछ कार्य करें ना॥
बिन कर्म किये घर ईश गये, उनको यह सूरत क्यों दिखलाई?
डर रंच नहीं इस जीवन से, जग में रह कर्म करो कुछ भाई॥

मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 3, 2014 at 11:21pm

भइया, शिल्प और भाषा के स्तर पर यह प्रस्तुति कुछ जमी नहीं.

कृपया प्रयास बनाये रहें.
शुभेच्छाएँ

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:25pm

आदरनीय जीतेंद्र जी! रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:24pm

आदरनीय नीरज ! जी रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:22pm

आदरनीय रमेश जी रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:20pm

आदरनीय गिरिराज जी रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:18pm

आदरणीय अखिलेश सर जी रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 11, 2014 at 2:16pm

आदरणीय अरुण भाई जी रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 11, 2014 at 10:35am

मन की हठता सुन है तब ही, जब ही इसको तुम ढील दियो है।
कहता मन लोलुप जो तुम से, उसके सुर में सुर आप दियो है॥
निज आत्म सुनो सच वो कहता, 'वह ईश्वर अंश' कहे बुध भाई।
अनमोल बड़ा यह जीवन है, इसको नर वीर न व्यर्थ गवाई॥

बहुत सुंदर संदेशपरक रचना आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by Neeraj Neer on February 11, 2014 at 9:22am

बहुत ही उत्कृष्ट एवं सुन्दर गीत .. हार्दिक बधाई 

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 8:33pm

बहुत ही सुंदर सवैया त्रिपाढीजी सादर बधाई

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