इक गुलदस्ते की तरह, सजा हमारा देश।
तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह के वेश।।
जाति धर्म के फेर में, उलझ गया इंसान।
प्रेम शांति का मार्ग है, सत्य यही लो जान।।
तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।
बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।
मक्कारी औ झूठ से, जो ना आये बाज।
उसकी भाषा लो समझ, पहचानो आवाज।।
(मौलिक व अप्रकाशित)* संशोधित
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार
भाई शिज्जूजी, आपके दोहे शिल्प की दृष्टि से बहुत सार्थक हुए हैं. बस तनिक प्रयास आपको बहुत संतुष्टि देगा.
तथ्य के लिहाज़ से सभी दोहे संयत हैं बस कुछ मूलभूत अंतर उन शब्दों को ले कर है जो सनातनी हैं यानि universal हैं. उनको अलग या गलत अर्थ अवश्य दिया जा रहा है या दिया गया है लेकिन उससे उनका महत्व कम नहीं होता. एक सार्थक और सजग रचनाकार इन्हीं अर्थों में सचेत कहलाता है.
ऐसा ही एक शब्द है धर्म, जो पंथ कत्तई नहीं है. धर्म वस्तुतः एक ऐसी जीवन शैली का द्योतक है जिसे कर्तव्य-निर्वहन के तौर पर भी लिया जा सकता है. ऐसा ही अर्थ उसे मिलता भी रहा है.
फूल का खिलना उसका धर्म है. नदिया का बहना उसका धर्म है. पुत्र द्वारा अपने माता-पिता की सुनना और आज्ञा मानना या अपने किये से संतुष्ट करना उसका धर्म है. एक चोर का धर्म ही चोरी करना है तभी वह चोर कहलाता है. वह चोरी नहीं करेगा तो अपनेधर्म से विलग हो जायेगा. फिर उसे कोई चोर नहीं कहेगा.
यह शब्द, यानि धर्म, अन्य किसी पंथावलम्बियों के पास नहीं होने से इसे पंथ के समकक्ष केवल रखा ही नहीं गया, अपितु इसका अनर्थ भी किया गया. लेकिन भला हो हमारे मंदअक्ल किन्तु शातिर मठों और उनके मठाधीशों का जिन्होंने इस झूठ को इतनी बार दुहराया-तिहराया, कि सामान्य ज़िन्दग़ी जीने वाले लोग इस शब्द और उसके अर्थ को ही पचड़ा समझने लगे.
चूँकि आप एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर प्रयासकर्ता व रचनाकार हैं इस लिए आपसे और आपके माध्यम से मैंने ये बातें साझा की हैं.
शुभेच्छाएँ
आदरणीया डॉ प्राची जी आपकी बात सही है मैं अपनी बात समझा नही पा रहा हूँ
धर्म कभी होता नहीं, विकास का आधार।...................इस पंक्ति की तार्किकता को एक बार फिर से देखें आ० शिज्जू जी, आप शायद पंथ या कट्टरवादी किसी सम्प्रदाय की बात कहना चाहते हैं.. यदि धर्म आधार नहीं होगा तो विकास क्या अधर्म के आधार पर संभव है?
सादर.
आदरणीया डॉ प्राची जी उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया, आपका मार्ग दर्शन बना रहे।
पृष्ठ में सर्व-धर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम की उन्नत अवधारणा रखते हुए सुन्दर दोहावली प्रस्तुत की है आ० शिज्जू जी
तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।
बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।.................बहुत सही और सुन्दर
हार्दिक बधाई
आदरणीय राजेश दीदी उत्साहवर्धन करने के लिये आपका आभार, आपका मार्गदर्शन बना रहे
आदरणीय अनिल जी आपने मेरे प्रयास को सराहा आपका हार्दिक आभार
तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।
बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।------जबरदस्त ,शानदार दोहों में नगीना
बहुत बहुत बधाई शिज्जू भाई दोहों में भी माहिर होते जा रहे हो दिख रहा है ,शुभ कामनाएं
आदरणीय!
तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।
बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।................बहुत ही सुन्दर और स्वस्थ परिकल्पना जो सच से कोशों दूर.....................आपकी परिकल्पना हकीकत का रूप ले.................आमीन!
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