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इक गुलदस्ते की तरह, सजा हमारा देश।

तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह के वेश।।

 

जाति धर्म के फेर में, उलझ गया इंसान।
प्रेम शांति का मार्ग है, सत्य यही लो जान।।

 

तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।

बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।

 

मक्कारी औ झूठ से, जो ना आये बाज।

उसकी भाषा लो समझ, पहचानो आवाज।।

(मौलिक व अप्रकाशित)* संशोधित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 24, 2014 at 9:08pm

आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 3:43pm

भाई शिज्जूजी, आपके दोहे शिल्प की दृष्टि से बहुत सार्थक हुए हैं. बस तनिक प्रयास आपको बहुत संतुष्टि देगा.
तथ्य के लिहाज़ से सभी दोहे संयत हैं बस कुछ मूलभूत अंतर उन शब्दों को ले कर है जो सनातनी हैं यानि universal हैं. उनको अलग या गलत अर्थ अवश्य दिया जा रहा है या दिया गया है लेकिन उससे उनका महत्व कम नहीं होता. एक सार्थक और सजग रचनाकार इन्हीं अर्थों में सचेत कहलाता है.

ऐसा ही एक शब्द है धर्म, जो पंथ कत्तई नहीं है. धर्म वस्तुतः एक ऐसी जीवन शैली का द्योतक है जिसे कर्तव्य-निर्वहन के तौर पर भी लिया जा सकता है. ऐसा ही अर्थ उसे मिलता भी रहा है.

फूल का खिलना उसका धर्म है. नदिया का बहना उसका धर्म है. पुत्र द्वारा अपने माता-पिता की सुनना और आज्ञा मानना या अपने किये से संतुष्ट करना उसका धर्म है.  एक चोर का धर्म ही चोरी करना है तभी वह चोर कहलाता है. वह चोरी नहीं करेगा तो अपनेधर्म से विलग हो जायेगा. फिर उसे कोई चोर नहीं कहेगा.

यह शब्द, यानि धर्म, अन्य किसी पंथावलम्बियों के पास नहीं होने से इसे पंथ के समकक्ष केवल रखा ही नहीं गया, अपितु इसका अनर्थ भी किया गया. लेकिन भला हो हमारे मंदअक्ल किन्तु शातिर मठों और उनके मठाधीशों का जिन्होंने इस झूठ को इतनी बार दुहराया-तिहराया, कि सामान्य ज़िन्दग़ी जीने वाले लोग इस शब्द और उसके अर्थ को ही पचड़ा समझने लगे.


चूँकि आप एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर प्रयासकर्ता व रचनाकार हैं इस लिए आपसे और आपके माध्यम से मैंने ये बातें साझा की हैं.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 4, 2014 at 8:45am

आदरणीया डॉ प्राची जी आपकी बात सही है मैं अपनी बात समझा नही पा रहा हूँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 20, 2014 at 2:34pm

धर्म कभी होता नहीं, विकास का आधार।...................इस पंक्ति की तार्किकता को एक बार फिर से देखें आ० शिज्जू जी, आप शायद पंथ या कट्टरवादी किसी सम्प्रदाय की बात कहना चाहते हैं.. यदि धर्म आधार नहीं होगा तो विकास क्या अधर्म के आधार पर संभव है?

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 20, 2014 at 9:24am

आदरणीया डॉ प्राची जी उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया, आपका मार्ग दर्शन बना रहे।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 18, 2014 at 1:38pm

पृष्ठ में सर्व-धर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम की उन्नत अवधारणा रखते हुए सुन्दर दोहावली प्रस्तुत की है आ० शिज्जू जी 

तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।

बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।.................बहुत सही और सुन्दर 

हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 18, 2014 at 7:47am

आदरणीय राजेश दीदी उत्साहवर्धन करने के लिये आपका आभार, आपका मार्गदर्शन बना रहे 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 18, 2014 at 7:46am

आदरणीय अनिल जी आपने मेरे प्रयास को सराहा आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 17, 2014 at 11:58am

तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।

बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।------जबरदस्त ,शानदार दोहों में नगीना 

बहुत बहुत बधाई शिज्जू भाई दोहों में भी माहिर होते जा रहे हो दिख रहा है ,शुभ कामनाएं 

 

Comment by अनिल कुमार 'अलीन' on February 16, 2014 at 9:41pm

आदरणीय!

तुम अपनी पूजा करो, औ मैं पढ़ूँ नमाज।

बस इतना ही फर्क है, अपना एक समाज।।................बहुत ही सुन्दर और स्वस्थ परिकल्पना जो सच से कोशों दूर.....................आपकी परिकल्पना हकीकत का रूप ले.................आमीन!

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