मेरी आँखों के सामने
रूका हुआ है
धुएं का एक गुबार
जिस पर उगी है एक इबारत ,
जिसकी जड़ें
गहरी धंसी हैं
जमीन के अन्दर.
इसमें लिखा है
मेरे देश का भविष्य,
प्रतिफल , इतिहास से कुछ नहीं सीखने का .
उसमे उभर आयें हैं ,
कुछ चित्र,
जिसमे कंप्यूटर के की बोर्ड
चलाने वाले , मोटे चश्मे वाले
युवाओं को
खा जाता है,
एक पोसा हुआ भेड़िया,
लोकतंत्र को कर लेता है ,
अपनी मुठ्ठी में कैद
और फिर फूंक मारकर
उड़ा देता है उसे
राख की तरह
मानो यह कभी था ही नहीं.
बन जाता हैं स्वयं शहंशाह
टेलीविजन पर बहस करने वाले
बड़े-बड़े बुद्धिजीवि
भिड़ा रहे हैं जुगत ,
अपनी सुन्दर बीवियों और
बेटियों को छुपाने की
धुआं धीरे धीरे नीचे उतर कर
आ जाता है जमीन पर,
पत्थर के पटल पर
मोटे मोटे अच्छरों में दर्ज
हो जाता है इतिहास.
मैं अपनी आँखों के सामने
इतिहास बदलते देख रहा हूँ
नीरज कुमार नीर
मौलिक/अप्रकाशित
.....
Comment
भाई नीरज नीरजी, आपकी असहजता को मैं समझ सकता हूँ. परन्तु, मुझे आप उन बड़ों की श्रेणी में न ही डालें जो अनायास ही अपने अनुजों के क्रिया-कलापों से भिज्ञ हो जाते हैं और चकित हुआ करते हैं. यह मेरी विवशता ही है कि मैं कई बार रचनाओं पर समय से नहीं आ पाता. लेकिन तनिक मौका मिलते ही रचनाओं से गुजरने का अवसर छोड़ता भी नही. आपने भी ध्यान दिया होगा कि पिछले दो दिनों में मैंने कई रचनाएँ अपनी थोड़ी-बहुत समझ के अनुसार देख डालीं. यह सदा से मेरे लिए ही लाभ और समझ की स्थिति हुआ करती है.
//मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो अगर कुछ भी करता है तो चाहता है उसके शिक्षक या उसके माता पिता उसे देखें एवं स्वाभाविक मानवीय इच्छा होती है कि सराहें //
यह मनोदशा तो कमोबेश हर नये रचनाकार की होती है, घोषित रूप से होती है. क्या यही दशा मेरी नहीं हुई है, जब मेरी ’इकड़ियाँ जेबी से’ आप सुधीजनों के हाथों में गयी है ! आपने मेरी बात को समझा भी होगा.
स्थापित रचनाकार संभवतः संयत हो कर कुछ गंभीर हो जाते हों और उन्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना सहज हो जाता हो.
शुभ-शुभ
आपका हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी .... आपका आना और आपकी इस टिपण्णी ने रचना को धन्य कर दिया , मेरी स्थिति उस बच्चे के समान है जो अगर कुछ भी करता है तो चाहता है उसके शिक्षक या उसके माता पिता उसे देखें एवं स्वाभाविक मानवीय इच्छा होती है कि सराहें , कई बार ऐसा होता है कि बड़ों का ध्यान बच्चे की क्रिया कलाप के तरफ नहीं जाता , और फिर एक दिन कभी अनायास उनका ध्यान चला जाता है और उसकी सराहना करते हुए कहते हैं कि वाह तुमने तो बड़ा अच्छा काम किया है ..... करीब करीब ऐसी ही मनोदशा मेरी हो गयी है .... इस प्रोत्साहन एवं समर्थन के लिए आपका धन्यवाद व्यक्त करता हूँ ..
भाई नीरज नीरजी, इस कविता का सचेत स्वरूप आश्वस्त करता है कि ओबीओ का मंच अत्यंत भाग्यशाली है कि ऐसी कहन से समर्थ रचनाकार सक्रिय हैं.
हमारे प्रशासन, राजनीति या कार्यपालिका की विवशता ही यही है कि वह बलात् लुट सकती हैं. दिशा-दर्शन के लिए उत्तरदायी इन उपक्रमों को इस भूमि का पुरा-इतिहास प्रभावित नहीं करता, न करने दिया जाता है. बल्कि विगत वर्तमान अधिक प्रभावित करता है. इस हेतु सारे वह कर्म होते हैं ताकि ’पुरा’ पर गर्व न हो, बिना इस तथ्य पर विचार किये कि कोई असहज या अनगढ़ परंपरा सहस्राब्दियों नहीं चला करतीं.
खैर यह तो हुई सत्ता-तंत्र की बात. वस्तुतः आपकी कविता यहाँ से प्रारम्भ होती है. और क्या खूब विवेचना करती हुई चलती है.
उसमे उभर आयें हैं ,
कुछ चित्र,
जिसमे कंप्यूटर के की बोर्ड
चलाने वाले , मोटे चश्मे वाले
युवाओं को
खा जाता है,
एक पोसा हुआ भेड़िया,
लोकतंत्र को कर लेता है ,
अपनी मुठ्ठी में कैद
और फिर फूंक मारकर
उड़ा देता है उसे
राख की तरह
मानो यह कभी था ही नहीं.
बहुत खूब ! इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष मैंने उपरोक्त बातें कही हैं.
या फिर,
टेलीविजन पर बहस करने वाले
बड़े-बड़े बुद्धिजीवि
भिड़ा रहे हैं जुगत ,
अपनी सुन्दर बीवियों और
बेटियों को छुपाने की
आपकी चेतन-प्रभा को मेरा पाठक न केवल स्वीकार करता है बल्कि इस कविता के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को सस्वर भी पाता है.
हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
आदरणीय अनिल कुमार अलीन जी आपका हार्दिक आभार ...
एक कड़वा सच.............. काव्य के माध्यम से सुन्दर प्रस्तुतीकरण,..............................बहुत खूब..........
आपका आभार आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्र जी , जिस हेतू बीवियों का प्रयोग किया है उसी हेतु बेटी का प्रयोग किया है , चूँकि जब अराजकता होती है तो सबसे ज्यादा भुगतना बेटियों एवं बहनों को ही पड़ता है ... वे बलात अपहृत की जाती है एवं आगे सर्व विदित है , आज जो बांग्लादेश में हो रहा है , पाकिस्तान में हो रहा है , आजादी के वक्त जो हुआ... यह पूरी रचना को उस ददृष्टिकोण से ही रची गयी है , बाकि कितना सफल या असफल हुआ हूँ यह तो आप बेहतर बताएँगे ...
बहुत ही उत्क्रिस्ट रचना ..भाई नीरज जी ..
बड़े-बड़े बुद्धिजीवि
भिड़ा रहे हैं जुगत ,
अपनी सुन्दर बीवियों और
बेटियों को छुपाने की
धुआं धीरे धीरे नीचे उतर कर
आ जाता है जमीन पर,
पत्थर के पटल पर...इन पंक्तियों को समझ नहीं पाया .बेटियों का प्रयोग किस लिए किया गया है ..कृपया मार्गदर्ष करने का कष्ट करें सादर
आदरणीय भाई जीतेन्द्र गीत जी आपका आभार.
आ शिज्जू शकूर जी हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय वंदना जी रचना को गहराई से समझने वाम प्रोत्साहित करने के लिए आपका आभार.
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