ज़िंदगी कसौटियों पर कस कर
निखरती सी गई
जितनी ये तबाह हुई
उतनी संभरती सी गई
आदमियत और गद्दारी में आकर
घुलती सी गई
कभी ये राम,रहीम ,नानक
में बँटती सी गई
कभी ये सुरमई शामों में वीणाकी तरह
बजती सी गई
कभी बेगानों की तरह
कटती सी गई
कभी वादे कभी शोषण में
फँसती सी गई
कभी ये सारे बंधन तोड़ कर
बेदाग सी लगी
कभी ये अंगारों पर चल कर
दहकती सी लगी
कभी ये डगमगाते दीपक
जैसे बुझती सी लगी
कभी ये सुनहरे तारों से बने
पिंजड़े सी लगी
कभी उसमें फंसा पाखी
जैसी बेबस सी लगी
ये ज़िंदगी तेरी एक -एक कठिनाई
मुझे कोहनूर सी लगी
जड़ाया जब उसे अंगूठी में
तो नगीने जैसी लगी
ये ज़िंदगी तू पात -पात हर डाल-डाल
पर लिखी सी लगी
खग ,विहग,पखेरू के
कंठ में गीत सी लगी
कभी तू महकती चमेली
के फूलों सी लगी
कभी -कभी ये ज़िंदगी
बेरंग गंधहीन सी लगी
जितना कहूँ तेरे लिए
वो कम है क्योंकि
तू हर एक पल
पहेली सी लगी ।
कल्पना मिश्रा बाजपेई
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
ज़िंदगी कसौटियों पर कस कर
निखरती सी गई
जितनी ये तबाह हुई
उतनी संभरती सी गई.....................बहुत खूब..........
ये ज़िंदगी तेरी एक -एक कठिनाई
मुझे कोहिनूर सी लगी
जड़ाया जब उसे अंगूठी में
तो नगीने जैसी लगी
आदरणीया कल्पना जी। ।सुन्दर रचना सचमुच ये जिंदगी एक पहेली ही तो है
अद्भुत रंग विखरे इसके आप की रचना में
सुन्दर रचना
भ्रमर ५
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