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केक्टस (लघुकथा)

"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था,  उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."

(मौलिक और अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2014 at 5:08am

लघुकथा को मान देने के लिए दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आपका मा० वंदना जी. दरअसल कम शब्दों में लघुकथा कहना कोई विशेषता नहीं है, बल्कि यह तो इस विधा की एक ज़रूरी शर्त है.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 24, 2014 at 5:05am

भाई शुभ्रांशु जी, आप बिलकुल सही कह रहे हैं. आपकी बात से पंजाबी की एक कहावत याद आ रही है:

मज्झ बेच के घोड़ी लई

दुद्ध पीणों गए लिद्द चक्क्णी पई  

यानि भैंस बेच कर घोड़ी खरीदी, दूध से तो वंचित हुए ही ऊपर से लीद भी साफ़ करनी पड़ी

कुछ ऐसा ही हाल आजकल की आधुनिकता का  भी है. बहरहाल आपने रचना के मर्म को समझ कर उसे मान दिया, जिसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on February 22, 2014 at 9:44pm

आदरणीय योगराज भाईजी,

कटु व्यंग्य और सच्चाई। हमारे राजनेता भी आजकल ऐसा ही निर्णय लेते हैं। कुछ "खास"  को खुश करने और लाभ पहुँचाने के लिए लाखों " आम आदमी" का बुरा करने से नहीं चूकते । मेरी हार्दिक बधाई इस लघु कथा पर॥

Comment by Vindu Babu on February 22, 2014 at 8:40pm

आज के परिदृश्य पर कितना सटीक व्यंग किया है आपने आदरणीय वो भी इतने कम शब्दों में!

वाह आदरणीय.

सादर बधाई.

Comment by Shubhranshu Pandey on February 22, 2014 at 8:30pm

आदरणीय योगराज जी,

एक भरे पूरे दरख्त के छाये को कटवाकर कैक्टस को हरा भरा करना आज की आधुनिक और तात्कालिक मानसिकता को दिखाता है बहुत सुन्दर, सादर.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 22, 2014 at 7:37pm

दिल से शुक्रिया भाई राम शिरोमणि जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 22, 2014 at 7:37pm

सादर अभार आ० लड़ीवाला जी

Comment by ram shiromani pathak on February 22, 2014 at 2:16pm

बहुत गहरी बात कही है आपने आदरणीय योगराज जी। ……। हार्दिक बधाई आपको //सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 22, 2014 at 11:32am

छोटे लाभ के लिए स्थाई नुकसान कर बैठने वाले कृत्य पर गहरा कटाक्ष कर सुन्दर सन्देश देती लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई श्री योगराज भाई जी 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 22, 2014 at 10:30am

आपकी सराहना का दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ० वंदना जी.

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