"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था, उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
लघुकथा को मान देने के लिए दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आपका मा० वंदना जी. दरअसल कम शब्दों में लघुकथा कहना कोई विशेषता नहीं है, बल्कि यह तो इस विधा की एक ज़रूरी शर्त है.
भाई शुभ्रांशु जी, आप बिलकुल सही कह रहे हैं. आपकी बात से पंजाबी की एक कहावत याद आ रही है:
मज्झ बेच के घोड़ी लई
दुद्ध पीणों गए लिद्द चक्क्णी पई
यानि भैंस बेच कर घोड़ी खरीदी, दूध से तो वंचित हुए ही ऊपर से लीद भी साफ़ करनी पड़ी
कुछ ऐसा ही हाल आजकल की आधुनिकता का भी है. बहरहाल आपने रचना के मर्म को समझ कर उसे मान दिया, जिसके लिए आपका हार्दिक धन्यवाद
आदरणीय योगराज भाईजी,
कटु व्यंग्य और सच्चाई। हमारे राजनेता भी आजकल ऐसा ही निर्णय लेते हैं। कुछ "खास" को खुश करने और लाभ पहुँचाने के लिए लाखों " आम आदमी" का बुरा करने से नहीं चूकते । मेरी हार्दिक बधाई इस लघु कथा पर॥
आज के परिदृश्य पर कितना सटीक व्यंग किया है आपने आदरणीय वो भी इतने कम शब्दों में!
वाह आदरणीय.
सादर बधाई.
आदरणीय योगराज जी,
एक भरे पूरे दरख्त के छाये को कटवाकर कैक्टस को हरा भरा करना आज की आधुनिक और तात्कालिक मानसिकता को दिखाता है बहुत सुन्दर, सादर.
दिल से शुक्रिया भाई राम शिरोमणि जी.
सादर अभार आ० लड़ीवाला जी
बहुत गहरी बात कही है आपने आदरणीय योगराज जी। ……। हार्दिक बधाई आपको //सादर
छोटे लाभ के लिए स्थाई नुकसान कर बैठने वाले कृत्य पर गहरा कटाक्ष कर सुन्दर सन्देश देती लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई श्री योगराज भाई जी
आपकी सराहना का दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आ० वंदना जी.
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