भाड़ में गए हरामजादे समाजवाले...राघव ने जेल की दीवारों पर एक जोरदार मुक्का मारा| उसका पोर पोर काँटा बन चुका था| वह बाहर से भी जख्मी था और भीतर से भी| वह जहर खा लेना चाहता था, लेकिन इस कालकोठरी में उसे वह भी प्राप्त नहीं हो सकता था| उसे आज तक मिला ही क्या? उसकी आँखे रोते रोते सूज चुकी थी, अब उनमें आंसू भी नहीं बन रहे थे| उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने शरीर के बाहर हवा में तैर रहा हो| एक ही पल में अगणित विचार कौंध उठते| वह जड़ भी था, चलायमान भी| उसके अंदर महाभारत का युद्ध चल रहा था, वह चक्रव्यूह का भेदन करना ही चाहता था की नि:शस्त्र योद्धा पर संकल्पों और विकल्पों के महारथी अपने शौर्य का प्रदर्शन करने लगे थे| क्या वह अभिमन्यु था? नहीं..वह तो एक सीधा सादा अध्यापक, कभी अपने छात्रों का प्रेरणास्रोत, आज जेल की कालकोठरी में किसी मसीहा के आने की बाँट जोह रहा है| वह जानता है कि कोई मसीहा नहीं आएगा क्योंकि कोई मसीहा है ही नहीं किन्तु स्वप्न देख लेने में क्या बुराई है..सारे सपने सच तो नहीं हो जाते? तो क्या लोग सपना देखना छोड़ देते हैं?
सपना ही तो देखा था उसने...जब वह बच्चा था..तो वह परियों के सपने देखता था| परियां उसके लिए सुन्दर सुन्दर खिलौने लाया करती थी| सबसे खूबसूरत खिलौने..हवा में उड़ने वाले गुब्बारे| वह उनके अंदर की हवा निकाल देता था फिर वह जोर से हँसता| क्योंकि उसके पिताजी गुब्बारे नहीं खरीद सकते थे| फिर वह पढ़ने गया..सपने भी पढ़ने गए| डाक्टर बनने के सपने..इंजीनीयर बनने के सपने..न..न| वह केवल अपने बारे में कैसे सोच सकता था..उसे तो समाज बदलना था..उसे सैनिक बन कर दुश्मनों का सफाया करना था..लेकिन उसके घुटने तो आपस में सट जाते थे..वह सैनिक कैसे बन सकता था? सपने तो सपने हैं रूप बदल लेते हैं| संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से| अब उसे नेता बनना था..सपने लुढ़कते रहे, रूप बदलते रहे और मृगनयनी का सपना देखते देखते वह दो बच्चों का बाप बन गया| अब भी तो सपना देखना था| अपनी आँखों से, अपने बच्चों के लिए| क्या हुआ जो वह कुछ नहीं कर सका? उसके बच्चे डॉक्टर बनेंगे, इंजीनियर बनेंगे, डी. एम., कलट्टर..और नहीं तो क्या? चपरासी बनेंगे| नहीं, वह अपने बच्चों को अभावों में नहीं जीने देगा| पांच हजार रूपये से क्या होता है? छोड़ो यार अध्यापकी..तुम्हारी डीग्री तुम्हारे बच्चों को किस तरह का जीवन स्तर दे रही है? यह तुम भी जानते हो और मैं भी जानता हूँ..उसके दोस्त ने यही तो कहा था, और काम भी तो कुछ खास नहीं था| सम्मान लेकर चाटेंगे क्या? अच्छा ख़ासा गुटखे का कारखाना है..माल भर के ले जाना है और पैसे गिन कर मालिक के पास पहुंचा देना है| पांच हजार रूपये महीने और ऊपर की कमाई| हर ट्रिप में ३० लीटर तेल भी बचाया तो बहुत है ना| मालिक भी सीधा सादा..कितना खुश है हमारे काम से| अभी दो महीने भी तो नहीं बीते हैं..नयी टाटा ४०७ आ रही है..हमारे नाम से| गाडी का कागज़, इंश्योरेंस सभी पर तो हमारा ही नाम है| सपनों ने एक बार फिर रूप बदल लिया था| ऐ रुको! कड़कडाती हुई आवाज आई थी..उसे चारो तरफ से घेर लिया गया था| इतनी पुलिस उसने जीवन में कभी नहीं देखी थी| दूसरे दिन समाचार पत्रों ने एक बड़ी खबर निकाली “नशे की पाठशाला, अध्यापक गिरफ्तार’ ‘पुलिस के हत्थे चढा सफेदपोश अपराधी’ ‘ गुरूजी चरस के साथ रंगे हांथों पकडे गए’ ‘सावधान कहीं आपका बच्चा गलत राह पर तो नहीं है’ और भी न जाने क्या क्या?
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
जीवन में आर्थिक आश्वस्ति की अपेक्षा कैसे-कैसे दलदल में धकेल देती है ! जिस विन्दु पर यह कथा हुई है वह विन्दु आजके समाज के लिए अति महत्वपूर्ण विन्दु है.
आपकी किस्सागोई प्रभावित करती है, आदरणीय मनोज मयंकजी. इस कथा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और हार्दिक बधाइयाँ.
एक बात :
इस कथा को लघुकथा का नाम न दें.
आदरणीया डा. साहिबा..कहानी को पढ़ने और उसे सराहने हेतु कोटिशः आभार...जी यह कहानी ही है|
आदरणीय अखिलेश भाई..कहानी पढ़ने और उसे सराहने हेतु कोटिशः आभार..
अध्यापक का अर्थार्जन के लिए गुटखा लाने लेजाने के काम के लिए हामी पर उसकी आड़ में होती चरस की आवाजाही से अनभिज्ञ वो कब जेल तक पहुँच गया...
कहानी की अंतर्धारा व प्रवाह प्रभावित करते हैं.. समाजिक जीवन में पसरी व्यापार की आड़ में नशे की सौदागरी और विसंगतियों को बखूबी प्रस्तुत किया है. पर ये लघु कथा नहीं, कहानी है
हार्दिक बधाई स्वीकारिये इस प्रस्तुति के लिए
आदरणीय मनोज कुमारजी ,
पैसों के लालच में एक अध्यापक का भटक जाना गलत है , लेकिन आज के अर्थ युग में सब संभव है । पता नहीं छात्रों और अपने बच्चों को क्या शिक्षा दी होगी इस शिक्षक ने। कथा की बधाई , कुछ छोटी हो सकती थी।
आदरणीय प्रदीप सर..आपका इस कहानी को समय देने हेतु कोटिशः आभार...आदरणीय शुभ्रांशु भाई..मेरे लिए प्रवाह के साथ बढती जाती है..वाली प्रतिक्रया ही पर्याप्त है..उक्त कहानी में मेरा संशय मूल रूप से प्रवाह को लेकर ही था..वह दूर हुआ..अब इस कहानी को इसी स्थिति पर छोड़ता हूँ..आप हमारे ऊपर इसी भांती स्नेह बनाए रखिये..मुझे विश्वास है की एक दिन मैं कथाकर्म में भी पारंगत हो जाऊँगा..
आदरणीय मयंक जी,
सुन्दर कथा. प्रवाह के साथ बढती जाती है. लेकिन ये किसी लम्बी कथा के स्कैच लग रहे हैं.
लघु कथा के मूल भाव को आगे बढाने वैसे शब्द या घटनायें जिन्हे आप स्वयं अनुपयुक्त मानते हैं हटा दे. तो कथा और लघु कथा के संशय से बाहर् आ जायेंगे.
कथा के भाव बहुतसुन्दर हैं. अतृप्त इच्छाओं को सम्भालने में, जानकार और अनपढ़ में लोगों के लिये समान मानसिक दृढता की आवश्यकता होती है.
सादर.
कमेन्ट तकनिकी खराबी से कहीं और पोस्ट हो रहा है
लघु कथा बनाइये , कथ्य सही पथ्य भी सही हो
बधाई, प्रस्तुति हेतु सादर
आदरणीया मीना जी, विवेक भाई और बहन सरिता जी..आप सभी लोगों ने इस कहानी को पढ़ा और सराहा इसके लिए ह्रदय से आभारी हूँ..बस इसी बात का संशय है की लघुकथा और कहानी में वह कौन सा अंतर है जो इसे अलग करता है..क्योंकि मैं लघुकथा डाट काम पर श्रीमान शंकर पुणताम्बेकर के लेख से संशय में आ गया हूँ..उनके अनुसार इसकी कोई शब्द सीमा ही नहीं होती..मुझे खुद यह कहानी लंबी लग रही है..और मुझे ऐसा भी प्रतीत हो रहा है की इस कहानी में अनेक ऐसे शब्द भी शामिल हैं जिनका कहानी से कोई लेना देना नहीं है..मैं आप सभी का मार्गदर्शन चाहता हूँ..आभार..
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