इन्दु अपने मंडल की पेंशन प्रमुख थी, किसी भी बुजुर्ग महिला या बहन को पेंशन लगवानी होती तो झट उससे संपर्क करतीं ....
अपने मोहल्ले की अपनी कॉलोनी की सभी महिलाओं की चाहे वो वृद्ध हो, विधवा हो या तलाकशुदा हो उसने बिना किसी अड़चन के पेंशन लगवा दी थी.
समय ने करवट ली, उसके पति का आकस्मिक देहांत हो गया ...
कुछ समय बीत जाने पर उसकी एक ख़ास सहेली ने उसे सुझाव दिया ...
"भाभी आप ने पेंशन के लिए अपना फॉर्म भरवाया ?"
थोड़ा चुप रहकर फिर कहा ..
"यह तो सरकार दे रही है लेने में क्या हर्ज है ?"
इंदु मूक खड़ी थी ...वो उसको कोई जवाब नहीं दे पाई थी जबकि उसने कुछ गलत नहीं कहा था पर ना जाने क्यों उसे चुभ सी गई थी यह बात और उसके दिल से हूक सी उठी थी ...
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
सामाजिक अस्मिता विशिष्ट हो गयी संज्ञा के आम होते ही असंतुलित हो उठती है. एक अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया.
सादर
आदरणीय भाई विजय जी इस प्रेरक अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार
शुक्रिया शुभ्रांशु जी
आदरणीय जितेन्द्र जी हार्दिक आभार
आदरणीय सरिता जी,
आर्थिक मदद और सामाजिक मान्यताओं को प्रस्तुत करते हुये सुन्दर कथा.
सादर.
बहुत मार्मिक लघुकथा, बधाई आदरणीया सरिता जी
क्यों चुभ गयी , आदरणीया जी
शुक्रिया आदरणीय श्याम जी
सुन्दर लघुकथा हेतु बधाई..... |
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