1222- 1222- 1222
मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह
लगे है धूप भी अब राहबर की तरह
सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं अज़ीयत =यातना
बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह
झुलसने लगता है मन सुब्ह उठते ही
हुये दिन गर्मियों की दोपहर की तरह
घुटन होने लगी है इन हवाओं मे
जहाँ लगने लगा है बन्द घर की तरह
हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो हिसारे ग़म= ग़म का घेरा
मुसल्सल घूमता हूँ इक भँवर की तरह
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया शिज़्जू जी
शुक्रिया..
मतलब..आपने..तरह की तख़्ती 21 रक्खी है..ये तो ठीक है पर सिर्फ़ इस अरकान के सालिम रूप मेन जितनी भी बे'हर है..लघु की छूट नहीं ली जा सकती..मैं ग़लत भी हो सकता हूँ..ज्ञानी जान कृपया इसे बताएँ.
मेरी बात को चर्चा के रूप में ही लें..आख़िर हम सब सीख रहे है
आदरणीया वंदना जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय मुकेश भाई आपका हार्दिक आभार। अरूज में छूट के अनुसार किसी भी अरकान में एक अतिरिक्त लघु लिया जा सकता है बशर्ते वह एक स्वतंत्र लघु न हो।
आदरणीया कुंती जी आप जैसी समर्पित रचनाकार से सराहना पाना बड़े गौरव की बात है आपका हार्दिक आभार
आदरणीय गुमनाम भाई आपका हार्दिक आभार
सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं
बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह
हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो
मुसल्सल घूमता हूँ इक भँवर की तरह
वाह एक शानदार ग़ज़ल आदरणीय
आदरणीय शिज़्जू जी
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ..ख़याल भी खूबसूरत है..
पर क्या इस इस बे'हर मे किसी तरह की छूट ली जा सकती है?
मफाईलून..
मुबारकबाद और दाद
बहुत सुंदर गज़ल.....
मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह
लगे है धूप भी अब राहबर की तरह.....बहुत बहुत बधाई शकूर भाई.
शकूर जी ! बधाई ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,खूब कहा है
मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह
लगे है धूप भी अब राहबर की तरह
सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं
बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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