रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
मात मिली भारी वस्त्रों को,
गात सज रहे झीने से।
गोद प्रकृति की हर मन भाई।
दुपहर एसी कूलर लाई।
बतियाती है रात देर तक,
सुबह गीत गाती पुरवाई।
बाँट रहे गुल बाग-बाग में,
खुशबू के पल भीने से।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लड़ीवाला जी, आपको गीत पसंद आया, बहुत अच्छा लगा। हर्षित करती हुई टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद/सादर
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई.............. |
बहुत खूबसूरत रवां नवगीत है बहुत बहुत बधाई आपको
भीनी भीं खुशबू देता आपका यह नवगीत बेहद पसंद आया | हार्दिक बधाई आद. कल्पना रामानी जी
आदरणीया कल्पना जी ..मनभावन नव गीत ..मौसम परिवर्तन का क्या लाजबाब चित्रण किया है आपने ..गेयता भी मन को मुग्ध का देने वाली है ..आपकी इस शानदार प्रस्तुति को सादर नमन के साथ
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