2122 2122 2122 2122
चद्दरों से, सिर्फ़ कचरों को दबाया जा रहा है
साफ सुथरा इस तरह खुद को जताया जा रहा है
लूट के लंगोट भी बाज़ार में नंग़ा किये थे
फिर वही लंगोट दे हमको मनाया जा रहा है
रोशनी सूरज की सहनी जब हुई मुश्किल उन्हें तो
देखिये राहू से मिल सूरज छिपाया जा रहा है
सभ्यता जिस देश की माँ-बाप की पूजा, वहाँ पर
माँ-पिता के नाम पर अब दिन मनाया जा रहा है
ज़िन्दगी क्या मौत क्या हम मुफ़लिसों के वास्ते, अब
क्या बतायें किस तरह खुद को बचाया जा रहा है
जिस हक़ीकत को समझ के लोग दानिश मन्द होते
उस हक़ीकत को किताबों से हटाया जा रहा है
मामले वे, पर्वतों से भी अटल लगते हैं उनको
बस बयानी फूँक से देखो उड़ाया जा रहा है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
ऐसा तेवर, ऐसी साफ़बयानी आपकी ग़ज़लों में कम ही दिखती है. बहुत खूब !
इस कामयाब ग़ज़ल के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.
आदरनीया प्राची जी , आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते आयी है , गज़ल की सराहाना के लिये और दो अशाअर को पसन्द करके लिएय आपका आभारी हूँ ॥
सभी अशआर बहुत सुन्दर हुए हैं..
ये दो तो बहुत ही उम्दा हैं, ख़ास पसंद आये
रोशनी सूरज की सहनी जब हुई मुश्किल उन्हें तो
देखिये राहू से मिल सूरज छिपाया जा रहा है...................ईर्ष्या/दुश्मनी का एक ये रूप बहुत खूब प्रस्तुत किया है
जिस हक़ीकत को समझ के लोग दानिश मन्द होते
उस हक़ीकत को किताबों से हटाया जा रहा है.................बहुत शोचनीय और दुःख की बात है ये...पर उफ़ हो रहा है ऐसा
इस कामयाब ग़ज़ल पर मेरी दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये
आ. अखंड भाई , सराहना के लिये आपका आभार !!
बेहतरीन रचना के लिए बहुत सी बधाई आपको
आदरणीय विजय भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और आपकी प्रतिक्रिया , ग़ज़ल का मान और मेरा उत्साह दोनो बढा रही है , आपक बहुत आभार ॥
आदरणीया गीतिका जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका थे दिल से शुक्रिया ॥
आदरनीया राजेश जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभार !!
आदरणीय अरुण भाई , आपका बहुत शुक्रिया !!
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