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ग़ज़ल : तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला

सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं 

ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं । 

सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे 

दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं । 

सरहद है सराें के लिए अाखरी हद 

अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं । 

चमकती फिसलती हैं कारें महंगी 

मगर अादमीयत के जूते फटे हैं । 

जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी

वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं । 

तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला 

मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं । 

(माैलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Krishnasingh Pela on April 15, 2014 at 9:48pm

अादरणीय शकील जमशेदपुरी जी अाप ने इसे सराहा ताे मेरा प्रयास सार्थक हुअा । हार्दिक अाभार ।

Comment by शकील समर on April 15, 2014 at 3:57pm

इस सुंदर गजल के लिए बधाई आदरणीय।

Comment by Krishnasingh Pela on April 15, 2014 at 3:22pm

अा.  भुवन निस्तेज जी अाप ने इस  ग़ज़ल की बहर का उल्लेख कर के कुछ जिज्ञासाअाें काे सम्बाेधित किया उसके लिए हार्दिक अाभार । 

Comment by Krishnasingh Pela on April 15, 2014 at 3:17pm

अा.  Er. Ganesh Jee "Bagi"  जी बहर के सम्बन्ध में अा.  भुवन निस्तेज जी ने प्रष्ट कर दिया है । 

Comment by Krishnasingh Pela on April 15, 2014 at 2:58pm

अा.  rajesh kumari जी कुछ दुखद यादें हमारे साथ भी जुडी हैं । सायद इस भाव के पीछे थाेडा सा उस याद का भी याेगदान रहा हाेगा । 

Comment by Krishnasingh Pela on April 15, 2014 at 2:55pm

अादरणीय  Anurag Singh "rishi" जी, अा. भुवन निस्तेज जी, अा.  कल्पना रामानी जी, अा.  rajesh kumari जी, अा.  गीतिका 'वेदिका' जी, अा.  Er. Ganesh Jee "Bagi" जी, अा.  Mukesh Verma "Chiragh" जी, अा. धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी अाप सभी लाेगाें ने मेरी ग़ज़ल काे पढ कर अपनी अनमाेल प्रतिक्रियाअाें द्वारा मेरा मान बढाया है । अाप सभी लाेगाें के प्रति हार्दिक अाभार प्रकट करता हूँ । 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2014 at 12:33pm

आपके अशआर में जबरदस्त कटाक्ष है आदरणीय कृष्ण सिंह जी, अंतिम शेर पर क्या कहने, ग़ज़ल यहाँ चरम को प्राप्त करती है , मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं, सन्न से जा लगता है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 15, 2014 at 10:39am

अच्छे अश’आर हैं। दाद कुबूलें। कुछ जगह वज़्न दुरुस्त करने की ज़रूरत है।

Comment by भुवन निस्तेज on April 14, 2014 at 11:26pm

आदरणीय इस ग़ज़ल के लिए  बहरे मुतकारिब मुसम्मन सालिम (१२२ १२२ १२२ १२२ ) मात्रा ली गयी है...

हाँ कुछेक जगहों पर बहर पर  समस्या दिख रही है...

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 14, 2014 at 11:03pm

आदरणीय कृष्ण जी
बहुत सुंदर ख़यालात है ग़ज़ल में..बधाई
कहीं-2 गाड़ी बे'हर की पटरी से उतरी भी है.

कृपया ध्यान दे...

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