सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं
ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं ।
सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे
दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं ।
सरहद है सराें के लिए अाखरी हद
अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं ।
चमकती फिसलती हैं कारें महंगी
मगर अादमीयत के जूते फटे हैं ।
जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी
वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं ।
तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला
मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं ।
(माैलिक व अप्रकाशित)
Comment
अादरणीय शकील जमशेदपुरी जी अाप ने इसे सराहा ताे मेरा प्रयास सार्थक हुअा । हार्दिक अाभार ।
इस सुंदर गजल के लिए बधाई आदरणीय।
अा. भुवन निस्तेज जी अाप ने इस ग़ज़ल की बहर का उल्लेख कर के कुछ जिज्ञासाअाें काे सम्बाेधित किया उसके लिए हार्दिक अाभार ।
अा. Er. Ganesh Jee "Bagi" जी बहर के सम्बन्ध में अा. भुवन निस्तेज जी ने प्रष्ट कर दिया है ।
अा. rajesh kumari जी कुछ दुखद यादें हमारे साथ भी जुडी हैं । सायद इस भाव के पीछे थाेडा सा उस याद का भी याेगदान रहा हाेगा ।
अादरणीय Anurag Singh "rishi" जी, अा. भुवन निस्तेज जी, अा. कल्पना रामानी जी, अा. rajesh kumari जी, अा. गीतिका 'वेदिका' जी, अा. Er. Ganesh Jee "Bagi" जी, अा. Mukesh Verma "Chiragh" जी, अा. धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी अाप सभी लाेगाें ने मेरी ग़ज़ल काे पढ कर अपनी अनमाेल प्रतिक्रियाअाें द्वारा मेरा मान बढाया है । अाप सभी लाेगाें के प्रति हार्दिक अाभार प्रकट करता हूँ ।
आपके अशआर में जबरदस्त कटाक्ष है आदरणीय कृष्ण सिंह जी, अंतिम शेर पर क्या कहने, ग़ज़ल यहाँ चरम को प्राप्त करती है , मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं, सन्न से जा लगता है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।
अच्छे अश’आर हैं। दाद कुबूलें। कुछ जगह वज़्न दुरुस्त करने की ज़रूरत है।
आदरणीय इस ग़ज़ल के लिए बहरे मुतकारिब मुसम्मन सालिम (१२२ १२२ १२२ १२२ ) मात्रा ली गयी है...
हाँ कुछेक जगहों पर बहर पर समस्या दिख रही है...
आदरणीय कृष्ण जी
बहुत सुंदर ख़यालात है ग़ज़ल में..बधाई
कहीं-2 गाड़ी बे'हर की पटरी से उतरी भी है.
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