2122 2122 212
वक़्त की रफ़्तार तो पैहम रही
जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही
बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही
ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे
धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही
वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया
सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही
कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे
आँखे उनकी तो सदा पुरनम रही
क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ
जब झड़ी बरसात की झम-झम रही
धूप में गुजरी कभी या छाँव में
जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही
मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ
जब तलक दौलत चमक चम-चम रही
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मौलिक एवं अप्रकाशित
पैहम =निरंतर
अब्र =बादल
मुफ़लिसी =गरीबी ,निर्धनता ,या अभाव का भाव
निहाँ=अन्दर
Comment
//टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही // क्या बात है बेहतरीन दिली दाद कुबूल करें
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