एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,
फिर क्यों लगता है -
-सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?
- सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?
आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ?
प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति !
फिर भी -
प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,
प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता !
थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?
होते हैं मान-अपमान एक थाली के चट्टे-बट्टे !
मिले मान तो होता गर्व, होती छाती चौड़ी ,
और अपमान पर तिलमिला जातें हैं क्रोध से !
पढ़ा है पर भूल जाते हैं पाठ सहिष्णुता का !
क्यों नहीं दोनों को समरूप ग्रहण कर पाते हम ?
जीवन-संगीत के दो सुर हैं हार-जीत !
एक की हार में होती दूजे की जीत निहित !
जीतते हैं तो आसमान महसूसते हैं मुट्ठी में ,
मिले हार तो चाहते हैं धरती में समा जाना !
आखिर क्यों -
हार-जीत की कसौटी पर उतर जाता रंग हमारा ?
कोई नही होता सिर्फ अच्छा या सिर्फ बुरा !
अच्छाई और बुराई -
एक म्यान में समायी रहतीं हैं दो तलवारों सी !
लेकिन सुन बड़ाई अपनी असीमित होता है आनंद ,
हो बुराई तो हो जाती है प्रज्ज्वलित क्रोधाग्नि !
आखिर क्यों प्रशंसा पर भारी पड़ जाती हैं निंदा ?
सविता मिश्रा
१४/२/२०१२
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जी दी मिलना हो तो दुनिया बहुत छोटी है नहीं मिलना चाहे तो बहुत बड़ी ..शुक्रिया दी प्रोत्साहन के लिय ....आशा है यूँ ही मार्गदर्शन करतीं रहेगीं
जी सविता जी हम वहां भी हैं और यहाँ भी देखो न दुनिया कितनी छोटी है हाहाहा :)))
शुक्रिया तहेदिल से राजेश दीदी जी .....हमारा अंदाजा सही था आपकी fb पर वह पोस्ट हमने यही कही पढ़ी थी
ये कुछ मानव स्वभाव की ग्रंथियाँ है जिनमे ताउम्र उलझा रहता है मानव कितना भी सुलझाने की कोशिश करे किन्तु ये कमजोरियां वश में भी नहीं आ पाती जिसने इनको वश में कर लिया वो संत कहलाया ...मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को खूब शब्द बद्ध किया है ,हार्दिक बधाई सवितामिश्रा जी
भंडारी भैया आभारी है हम आपके ......सादर नमस्ते स्वविकार करें
आदरणीया सविता जी , आत्म मंथन को लाजवाब शब्द मिले हैं । रचना के लिये बधाइयाँ ।
विजय भैया सादर नमस्ते ......आभार दिल से धन्यवाद
सौरभ भैया प्रोत्साहित करना भी चाहिए ....और इसके लिय तहेदिल से शुक्रिया ...बिना गलतियां बताये इन्सान आगे कैसे बढ़ेगा
हम बस पोस्ट करना ही सीखे थे अब तक यहाँ हमारा मतलब था एडिट कैसे करते है पता न था अभी कुछ दिन पहले ही पता चला बेटे के द्वारा ...और परसों रिक्वेस्ट भेजना समझ आया कैसे करते है ....
"ऐडमिन की परशानी की अधिक चिंता न करें."...ठीक है भैया अब तुरंत एडिट करेगें जैसे ही कोई गलती बताते हैं
हाँ एडिट ही यानि संशोधन करना है.
किसी रचनाकार द्वारा तथ्यों को समझ-बूझ कर किसी रचना में संशोधन कराने को इस मंच पर सदा से प्रोत्साहित किया जाता रहा है. अतः ऐडमिन की परशानी की अधिक चिंता न करें.
शुभेच्छाएँ
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