वो गयी न ज़बीं से …
आबाद हैं तन्हाईयाँ ..तेरी यादों की महक से
वो गयी न ज़बीं से .मैंने देखा बहुत बहक के
कब तलक रोकें भला बेशर्मी बहते अश्कों की
छुप सके न तीरगी में अक्स उनकी महक के
सुर्ख आँखें कह रही हैं ....बेकरारी इंतज़ार की
लो आरिज़ों पे रुक गए ..छुपे दर्द यूँ पलक के
ज़िंदा हैं हम अब तलक..... आप ही के वास्ते
रूह वरना जानती है ......सब रास्ते फलक के
बस गया है नफ़स में ....अहसास वो आपका
देखा न एक बार भी ......आपने हमें पलट के
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जितेन्द्र जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का का हार्दिक आभार
आदरणीय गिरिराज जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का का हार्दिक आभार
आदरणीय बैद्यनाथ जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का का हार्दिक आभार
आदरणीय शिज्जु शकूर जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का का हार्दिक आभार
आदरणीय सुशील सर भावाभिव्यक्ति अच्छी है। किस विधा में है कृपया उल्लेख करें तो हमारे जैसे सीखने वालों के लिये आसानी होगी
आदरणीय , बढ़िया रचना ..! बह्र या अरकान बता देते तो सुरमयी आनन्द भी आ जाता ! बहरहाल ..मुबारकबाद :)
आदरणीय सुशील भाई , अच्छी भाव पूर्ण रचना के लिये अपाको बधाइयाँ !! बह्र समझ नही पा रहा हूँ , अगर आपने गज़ल कही है तो तो बह्र का उल्लेख ज़रूर कीजियेगा !!
ज़िंदा हैं हम अब तलक..... आप ही के वास्ते
रूह वरना जानती है ......सब रास्ते फलक के...............बहुत खुबसूरत, दिली बधाई आपको आदरणीय शुशील जी
आदरणीय कुंती मुख़र्जी ग़ज़ल पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
बहुत सुंदर रूमानियत से भरपूर गज़ल. हार्दिक बधाई.
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