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दोहे (प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा )

गुणीजनों की शान में, हाज़िर दोहे पाँच
मिले ज्ञान जो छंद का, कभी न आए आँच

करें ब्रह्म का ध्यान हम, पीटें नहीं लकीर
भेदभाव सब छोड़ दें, रंग-जाति तकदीर

सबसे पहले हम जगें, जागे फिर संसार
करें कर्म अपने सभी, सुमिरें पवन कुमार

मज़ा सवाया और है, मज़ा अढ़ाई और
मज़ा मिले तब आम का, घने लगे जब बौर

कन्या पूजन वे करें, राखें उनकी लाज
होती अम्बे की कृपा, बनते सारे काज

वाणी कबिरा की भली, प्रेम राह जग जोत
ग्रंथ किनारे धर भजे, ज्ञानवान वह होत


प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
मौलिक /अप्रकाशित
१९.०४.२०१४

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 8:28pm

स्नेही शकूर साहब, 

सादर 

हमको किसके गम ने मारा ये कहानी फिर सही 

आप अपने हैं बस हर दिन सुहाना हर रात नयी 

आभार . लिखते रहिये. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 20, 2014 at 8:05pm

आदरणीय कुशवाहा सर ये बात मुझे अभी मालूम हुई आपको नेत्र सम्बंधित रोग है इसके बावजूद आपकी संलग्नता और रचना कर्म यह साबित करते हैं कि आपके पास तकलीफों से उबर पाने का माद्दा कितना है। आप जैसे वरिष्ठ सदस्यों से ही कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। आपको सादर नमन है और इस रचना के लिये दिली मुबारकबाद स्वीकार करें।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 5:49pm

स्नेही भतीजी गीतिका वेदिका जी 

सस्नेह / सादर 

अपने से वरिष्ठ के प्रति आदर भाव रखती हो ये आपके भारतीय संस्कार हैं. जिसे कुछ लोग खो चुके हैं या खोने की कगार पर हैं. पोथी पढ़ के , विशिष्टता पा कर कोई महान नही हो सकता जब तक श्रेष्ठ सिधान्तों को अपने जीवन में न बरते. जग जाहिर है , मैने खुले मंच पर स्वीकार किया है मै तों एक छाया मात्र हूँ, लोगो के प्रकाश से कभी कभी दिख जाता हूँ . मेरा लक्ष्य राष्ट्रीय चरित्र जगाना, उसमे ये साहित्य सेवा भी एक माध्यम है . नयी प्रतिभाओं को मंच देना. मेरा काम है. पद की लालसा कभी नही की , अपमान सह कर भी टिका रहता हूँ, जब कि ये नियम विरुद्ध होता है. कुछ अंतर तों मुझमे और अन्य में होना ही चाहिये. केवल एक लक्ष्य ..राम काज करिबे को आतुर आप सहित्य सेवा करते रहिये. अहंकार मत लाना . मैं सफल होऊं या असफल तकनिकी विधा में कोई फर्क इस से राष्ट्र को नहीं पड़ने वाला. हाँ यदि मै अपने कर्म से किसी भी एक चेहरे पर मुस्कान ला सका ..प्रभू कृपा होगी . वो जरूरी है. आगे फिर खुश रहिये . ये देश आपका है और सहित्य भी. दोनों खतरे में हैं. बाक़ी सब समझदार हैं. 

Comment by वेदिका on April 20, 2014 at 4:57pm
आदरणीय चाचाजी!
साहित्य के प्रति आपका लगाव हम सबको विदित है। आपका गोष्ठी में सक्रीय रहना और गोष्ठी के क्षणों को जीवंत करने का सम्पूर्ण श्रेय आपको जाता है। छंद रचना में आपकी उत्सुकता देखते ही बन रही है। आपकी अनुभवी वैचारिकता निश्चित ही छंद रचना को प्रभावकारी बनाएगी।
अनंत शुभकामनाएं
सादर गीतिका वेदिका
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 4:55pm

स्नेही श्री पाठक जी 

सादर 

राह दिखाते रहिये आभार 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 4:54pm

आदरणीया कल्पना जी सादर 

सीखना शुरू किया है, आगे खराब भी हो सकते हैं. 

प्रोत्साहित और राह दिखाती रहिएगा 

आभार 

Comment by ram shiromani pathak on April 20, 2014 at 2:31pm

सुन्दर दोहे है,आदरणीय प्रदीप  जी,बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by kalpna mishra bajpai on April 20, 2014 at 2:28pm

आदरणीय प्रदीप सर सुंदर दोहे लिखे हैं आप नें । बहुत बहुत बधाई सर । सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 20, 2014 at 12:51pm

आदरणीय श्री ब्रजेश जी 

सादर 

विधा की दुनिया मेरे लिए नयी है. इस बार वैतरणी पार करने की इच्छा लेकर आया हूँ. कहन , कथन, विषयवस्तु चयन का ज्ञान मिले . आप सब शुभ चिंतकों का स्नेह , प्रोत्साहन प्राप्त होगा तों सफल होऊंगा 

आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 20, 2014 at 11:18am

अपना स्नेहिल आशीर्वाद हमेशा  बनाये रखियेगा आदरणीय प्रदीप जी,

सादर !

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