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सूरज घिरा सवालों में (नवगीत) // --सौरभ

सिर चढ़ आया
फिर से दिन का
भीतर धमक मलालों में..
ऐसे हैं 
संदर्भ परस्पर..
थोथी चीख..  उबालों में !

जहाँ साँझ के
गहराते ही
भरें दिशाएँ हुआँ-हुआँ
फटी बिवाई
ले पाँवों में
नमी हुई है धुआँ-धुआँ

पथ के पिघले डामर को ले 
सूरज घिरा
सवालों में !

सेमल के घर आग लगी है
भीतर-बाहर
रुई-रुई
आँखों पारा छलक रहा है
बहते हैं
अवसाद कई

निर्जल राहें अवसादों की
रखें तरावट छालों में..

एक मुहल्ला अब भी
बसता-ढहता है
हर शाम-सुबह   
दृष्टि गड़ाये गिद्ध लगे हैं
लाशों पर
कर रहे सुलह

इस मरघट में मैना कैसे
सोचे तान खयालों में ?

************
-सौरभ
************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 848

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 29, 2014 at 4:37pm

आदरणीय विजयभाईजी, आपकी सदाशयता को नमन .. रचना को सम्मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

सादर

Comment by vijay nikore on April 29, 2014 at 4:02pm

सूरज घिरा सवालों में ! ............

पहले तो जैसे इस सुन्दर शीर्षक ने ही मन को बाँध लिया।

पढ़ता गया और रचना के भाव मन में उतरते गए।

कई पंक्तियों को पढ़कर मानो प्रसाद मिला.... जैसे ...

 

सिर चढ़ आया
फिर से दिन का
भीतर धमक मलालों में......

 

जहाँ साँझ के
गहराते ही
भरें दिशाएँ हुआँ-हुआँ  ....

 

पथ के पिघले डामर को ले 
सूरज घिरा
सवालों में !

 

ऐसी अनूठी अभिव्यक्ति पढ़ने को दुर्लभ ही मिलती है।

 

इस अच्छी रचना के लिए आपको बधाई।

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 29, 2014 at 2:30pm

प्रस्तुति पर आपकी सहयोगी उपस्थिति का हार्दिक स्वागत है, भाई जितेन्द्रजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 29, 2014 at 2:29pm

संवेदनापूरित अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय गजेन्द्रजी.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 29, 2014 at 9:26am

जहाँ साँझ के
गहराते ही
भरें दिशाएँ हुआँ-हुआँ
फटी बिवाई
ले पाँवों में
नमी हुई है धुआँ-धुआँ...............बहुत सुंदर व् गहन भाव, मन को छू जाते. हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय सौरभ जी

Comment by Gajendra shrotriya on April 28, 2014 at 11:21pm

 कवि मन की पीड़ा के शाब्दिक अवतरण को मेरा निःशब्द नमन आदरणीय। सादर। 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2014 at 10:38pm

आदरणीया वन्दनाजी, एक अवधारणा सी बन गयी है, या बना ली गयी है कि नवगीत सकारात्मक नोट पर ही समाप्त हों. मुझे आजतक इसका कारण समझ में नहीं आया. मैंने अपने हिसाब से कथ्य को गढ़ लिया और तमाम मजलूमों की भावनाओं और व्यथा को पटल पर रखने की कोशिश की है.

आपको मेरा प्रयास सार्थक लगा है तो इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2014 at 10:34pm

आपकी हौसला अफ़ज़ाई के लिए हार्दिक धन्यवाद शिज्जू भाईजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2014 at 10:33pm

आदरणीय सुशीलजी, आपके मेरा प्रयास सार्थ लगा यह मेरे लिए भी परम संतोष की बात है.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 28, 2014 at 10:32pm

हार्दिक धन्यवाद श्यामनारायणजी

कृपया ध्यान दे...

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