सन्नाटा
एक
सन्नाटा
बुनता है
एक चादर
उदासी की
जिसे
ओढ कर
सो जाता हूं
चुपचाप
रोज
रात के इस
अंधेरे में
दो
अंधेरा
फुसफुसता है
लोरियां कान मे
रात भर
और दे जाता है
एक टोकरा नींद का
जिसे चुन लेते हैं
कुछ भयावह,
व ड़रावने सपने
बुनता है
जिन्हे
सन्नाटा
दिन के उजाले,
रात की चांदनी में
तीन
लिहाजा, चांद से
थोड़ी चांदनी
सूरज से
थोड़ी रोशनी
नोच कर
रख लूं
अपनी जेब मे
फिर नाचूं
प्रथ्वी और
आकाश में
मुकेश इलाहाबादी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
तीनों क्षणिकायें अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज करा रही हैं, आदरंणीय मुकेश भाईजी. एकाकी जीवन के विवश पलों की वास्तविकताओं को कितनी शिद्दत से आपने प्रस्तुत किया है. वाह वाह !
रात, रात का सन्नाटा, जिये जा रहे एकाकी पल, और त्राण पाने की छटपटाहट को इस विपुलता से सामने लाने के लिए हृदय से बधाई, आदरणीय !
सादर
इस सार्थक प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई आदरणीय मुकेश जी
बहुत खूबसूरत क्षणिकाएं
अंधेरा
फुसफुसता है
लोरियां कान मे
रात भर
और दे जाता है
एक टोकरा नींद का........वाह
हार्दिक बधाई आ० मुकेश श्रीवास्तव जी
सुंदर प्रस्तुति , बधाई स्वीकारें आदरणीय मुकेश जी
Bahut bahut shukira Ramesh Chauhaan jee, Giriraj jee aur Meenaa Pathak jee is hauslaa aafzaae ke liye
वाह ॥ भाई मुकेश जी , बहुत सुन्दर , बधाइयाँ ॥
बहुत सुन्दर ..बधाई आ० मुकेश जी
सुंदर प्रस्तुति आदरणीय मुकेशजी बधाई
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