केदार के मरने की खबर सुनते ही एक मिनट को राय साहब चौंके फिर अपने को सामान्य करते हुये बस इतना ही कहा अरे अभी उसी दिन तो आफिस में आया था पेंशन लेने तब तो ठीक ठाक था। ‘हां, रात हार्ट अटैक पड गया अचानक डाक्टर के यहां भी नही ले जा पाया गया’ राय साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस हॉथो से इशरा किय, सब उपर वाले की माया है, और चुपचाप चाय की प्याली के साथ साथ अखबार की खबरों को पढने लगे। खबर क्या पढ रहे थे। इसी बहाने कुछ सोच रहे थे।
चाय खत्म करके राय साहब ने अपनी अलमारी खोल के देखा पचपन हजार नकद थे। उन्होने पचास हजार की गडडी निकाली जेब में रखा और गाडी की तरफ चल दिये। आज उन्होने ड्राइवर को भी नही पुकारा। अकेले ही चल दिये केदार के घर की तरफ।
चार दषक से ज्यादा के फैलाव में वो चौथी बार केदार के घर जा रहे थे। पहली बार वो केदार की शादी पे गये थे दूसरी बार उसके पिता सूरज के मरने पे तीसरी बार तब गये थे जब केदार बहुत बीमार पड गया था। और आज चौथी बार उसके घर जा रहे थे। वैसे तो राय साहब अपने किसी कामगार के यहां कभी नहीं आते जाते सिवाय एक दो मैनेजर लोगों के। केदार ही उनमे अपवाद रहा।
राय साहब की गाडी आगे आगे जा रही थी और राय साहब के विचार पीछे और पीछे की तरफ दौड रहे थे।
सन 1971 के आस पास ही का वक्त था। वह बिजनेष मैनेजमेंट की शिक्षा लेकर पैत्रक व्यवसाय मेें लग चुके थे। पिताका काम बखूबी सम्हाल लिया था। पिताजी व्यवसाय से अपने को अलग करने लगे थे फिर भी पिताजी की राय और बात उनके लिये आज्ञास्वरुप ही रहा करती। जिसे वे किसी भी कीमत में काट नही सकते थे। उन्ही के हाथ की चिठठी लेकर उनके फैक्टी का चौकीदार अपने जवान होते बेटे को लेकर आया था। नौकरी के लिये। रायसाहब ने पढाई लिखाई के हिसाब से उसे असिस्टेंट क्लर्क के रुप में रख लिया था केदार को। हाई स्कूल पास केदार पढाई लिखाई मे तो भले ही होषियार न रहा हो पर मेहनती और ईमानदार था। यही वजह रही केदार राय साहब सभी वह काम उसे सौंपने लगे जिसमें ईमानदारी की ज्यादा दरकार होती। केदार की एक बात और राय साहब को पसंद थी जहा केदार उनका हर नौकर व मैनेजर उनके आस पास रहने और उनके आर्डर की प्रतीक्षा करता रहता वहीं केदार इन सब बातों से उदासीन सिर्फ अपने निर्धारित काम से काम रखता। केदार चापलूसी नहीं करता। यही कारण थे कि राय साहब और केदार के बीच एक मालिक और नौकर के अलावा एक अलग तरह के आत्मीय सम्बंध बन गये थे। शायद एक और बडा कारण यह भी रह हो कि केदार और केदार के पिता दोनो लगभग साठ साल से उसके यहां काम कर रहे थे।
यह सब सोचते सोचते राय साहब केदार के घर पहुंच चुके थे। दो कमरों के जर्जर मकान के आंगन में केदार का शव दो चार रिस्तेदारों के बीच पडा था। केदार की पत्नी ने उन्हे देखते ही घूंघट कर लिया और उसकी सिसकियां बढ गयी। केदार की छोटी बेटी और बेटा भी वहीं सिर झुकये उदास बैठै थे। आफिस के एक दो कर्मचारी भी आ गये थे वे ही दौड के रायसाहब के लिये कुर्शी ले आये। माहौल बेहद उदास और खामोष था। न तो राय साहब के पास बोलने के लिये कुछ था और न ही उनके परिवार के पास। सारी परिस्थितयां ही तो हैं जो सब कुछ बिन कहे बयाँ हो रही थी। और फिर राय साहब से केदार के घर की कौन सी थी जो उन्हे नहीं पता थी। राय साहब ने ही खामोषी तोडते हुयी उसकी बडी बेटी से जो ससुराल से आ चुकी थी कहा अभी पंद्रह दिन पहले तो जब पेंशन लेने आये था तक तो ठीक ठाक था केदार फिर अचान क्या हो गया ?’ बडी बेटी ने फिर सारी बातें रायसाहब को बतायी जिन्हे वे पहले सुन भी चुके थे। खैर फिर उसके बाद राय साहब ने केदार के बेटे को किनारे ले जाकर उसके हाथं मे पचास हजार थमाते हुये कहा ये रख लो फिर कभी कोई जरुरत होगी तो बताना। यह कह के केदार को अंतिम प्रणाम कहा और नम ऑखों को रुमाल से पोछते हुये गाडी पे वापस लौटने के लिये चल दिये।
गाडी की रफतार के साथ साथ यादों के काफिले एक बार फिर पीछे की तरफ घुमने लगे। केदार का माली पिता सूरज अपने पीछे तीन अनब्याही बेटियॉ और कुछ कर्ज छोड के मरा था। जिनसे उबरने में ही केदार की जवानी और छोटी पगार स्वाहा होती रही। बहनों की शादी के बाद काफी देर से खुद की शादी ब्याह और बच्चे किये नतीजा साठ की उम्र आते आते भी उसी सारी जिम्मेदारियां सिर पे ही थी किसी तरह कर्ज और पी एफ के फंड से बडी बेटी का ब्याह और बच्चों की पढाई ही करा पाया था। बेटा अभी पढ ही रहा था जब केदार रिटायर हुआ। हालाकि वह चााहता था कि गर पाच साल उसकी नौकरी और चलने पाती तो बेटा कम से कम ग्रेजुएट हो जाता और छोटी का विवाह भी फिर देखा जाता पर ...
अचानक कम्पनी ने निर्णय लिया और वह रिटायर कर दिया गया। हालाकि रायसाहब खुद भी उसे रिटायर नही करना चाह रहे थे पर अब उन्ही की कम्पनी में उनके बेटे की चलती है। बेटे से कई बार दबी जबान में कहा भी कि ‘बेटा, पुराने कर्मचारी बोझ नहीं सम्पति होते हैं’ पर बेटे के अपने तर्क थे ‘पिताजी, ये सब पुराने सिद्धांत है अगर आप वक्त के साथ साथ नहीं बदले तो वक्त आपकेा बहुत पीछे छोड देगा आप लोगों को वक्त कुछ और था। तब टेक्नालाजी इतनी तेजी से नहीं बदलती थीं। मार्केंट में इतना कमपटीशन भी नहीं था। और आज हमे वो वर्कर और कामकार चाहिये जो कम्पयूर चला सकते हों धडाधड अग्रेंजी बोल सकते हों। आफिस का भी काम कर सकते हों और लायसनिंग का भी। अगर आप केदार की बात करते हो तो उनके पास ये सब क्वालिटीस कहां है। बहुत कोषिष तो की पर क्या वो आज तक कम्पयूटर ठीक से सीख पाये। कौन सी फाइन कहां सेव कर दी उन्हे याद ही नहीं रहता। इसके अलावा वह काम में भी स्लो हैं। पहनाव ओढाव से भी वो किसी अच्छी कम्पनी के एम्पलाई नहीं लगते को डेलगेटस आ जाय तो उनका परिचय भी नहीं करा सकते। आजकल तो उनसे अच्छ पहन के तो आफिस के चपरासी आते हैं। फिर इन सब के अलावा उन्हे हर महींने किसी न किसी बहाने से एडवांस चाहिये होता है इन सब के अलवा उनके घरेलू प्राब्लम्स इतनी रहती है कि वे उन्ही से नहीं उबर पाते तो आफिस का क्या काम करेंगे और कितना मन लगा के कर पायेंगे। अब आप ही बताइये मै क्या करुं। मेरे पास क्या अब कर्मचारियों की समस्याएं ही सुलझाने का काम रह गया है अगर यही सब करुंगा तो बिजनेष कब करुंगा इसी लिये मैने पूराने और कम काम के सारे स्टाफ को हटाने का फेसला लिया है। हां अगर आपको केदार से इतना ही स्नेह है तो दो चार हजार की पेंशन बांध दीजिये जो आप के एकाउंट से दे दी जायेगी हर महीने। इससे ज्यादा आप अब कम्पनी से न उम्मीद करिये।’ राय साहब बेटे की बातों को सुन के चुप रह गये थे। वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या कभी वो अपने पिता से इस तरह बात कर सकते थे। उन पिता से जो कि घर के नौकरों से भी अदब से न बात करने पर नाराज हो जाया करते थे। और उन्होने हीे तो राय साहब के बताया था कि बेटाा घर के पुराने नौकर बोझ नहीं सम्पत्ति होते हैं।
राय साहब बेटे का विरोध इस लिये भी नहीं कर पा रहे थे कि उसकी बातों में कहीं सच्चााई भी थी। आज जब यह साठ साला कपडे की मिल अपनी पुरानी टेक्नालाजी के कारण साल दर साल घाटे की चपेट में थी जिसे उसके बेटे ने ही तो उबारा है अपनी सूझ बूझ और मेहनत से। आज उसी की वजह से तो ‘राय साहब एण्ड एसोसिएटस’ एक बार फिर से उन उंचाइयों पे पहुंचता दिखाइ्र दे रहा है। जिन उंचाइयों पर अपने वक्त में खुद राय साहब अपने पिता के छोटी सी मिल को ले के आये थे। पर क्या मजाल थी कि राय साहब उनके खिलाफ कुछ बोल पाये हों उनके मते दम तक। खैर राय साहब ने बेटे की इन बातों का कोई जवाब तो नहीं दिया था। हां चुपचाप उस ऑर्डर पे दस्तखत कर दिया था जिसमें केदारे के रिटायरमेंट और उसको पॉच हजार पेंशन की बात लिखी थी।
राय साहब के पास केदार जब इस पत्र को लेकर आया था इस उम्मीद से कि उसकी नौकरी पॉच साल और बढाा दी जाये तो राय सहाब ने कम्पनी का निर्णय बताकर अपने को अलग कर लिया था। और केदार अपने आदत अनुसार बिना कुछ ज्यादा कहे केबिन के बाहर चला गया था। उस दिन केदार के जाने के बाद से राय साहब भी अपने आफिस के केबिन में कम ही देखे गयेे।शायद उन्हे लगा कि आज केदार ही नहीं वो खुद भी रिटायर हो चुके हैं। और वो दिन था कि आज का दिन मात्र दो महीने ही तो हुये थे। जिंदगी के सारे ग़म और समस्याओं को अपनी खामोषी से पी लेने वाला केदार इस रिटायरमंट के ग़म को न सह पाया। राय साहब ने अपनी कार पार्टिकों में पार्क की और कपडे बदल के सीधे अपने कमरे मे जा चुके थे। उधर केदार की चिता धू धू कर के जल रही थी।
मुकेश श्रीवास्तव
30.01.2014 पूणे
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
कहानी अच्छी है. बधाई.
टंकण त्रुटियों पर कई पाठकों ने कहा ही है.
शुभकामनाएँ.
BAHUT BAHUT SHUKRIAA KAHAANEE PASANDGEE KE LIYE AUR APNE VICHAAR PRESHIT KARNE KE LIYE- AADARNEEYA BRIJESH JEE, SHARADINDU JEE, RAMESH CHAUHAANJEE AUR SABHEE PATHAK VRIND
MUKESH
बहुत सुन्दर और कसी हुई कहानी है! आपको हार्दिक बधाई!
टाइपिंग की गलतियाँ बहुत हैं. उन पर ध्यान दें!
बेहद मार्मिक । मुझे प्रेमचंदजी याद आ गये उसी प्रकार सरोकार से रची बसी यह आप की कहानी बेहद प्रभावकारी लगा हार्दिक बधाई आदरणीय मुकेश जी
आदरणीयमुकेश जी,
सुन्दर कथा. सम्बन्ध और व्यवसाय के उधेडबुन पर एक सशक्त कथा. इस तरह की कथा ज्यादातर सत्तर और अस्सी के दशक में पढने को मिलती थी.
केदार को सामने रख कर राय साहब की स्थिति को देखना और बेबसी को समझना या देखना मन को अन्दर तक झकझोड़ देता है.रह रह कर राय साहब का अपने पिता से सम्बन्धों को याद करना उनकी परिस्थिति को और स्पष्ट करता है.
कथा एक चलचित्र की तरह आँखो के सामने से चलती चली जाती है.
सादर.
aadarneeya CONTEE JEE, GIRIRAJ JEE, SHIJJOO JEE, LAXMAN PRASAD JEE sabhee kaa bahut bahtut aabhaar kahanee pasandgee ke liye
नयी टेक्नोलोजी में प्रुराने लोगो को काम में आ रही कठिनाइयों, समय की रफ़्तार, नयी पीढ़ी द्वारा काम संभालना
तो दूसरी ओर भावनाए | यही सब आजकल देखने में आ रहा है और पेंशनरों की तादाद बढती जा रही है | उनकी प्रति
सहनुभूति के अतिरिक्त कुछ नहीं किया जा रहा है | इसी ताने बाने को बुनते हुए रची कहनी के लिए बधाई
मन को छु गयी....सादर.
आदरनीय मुकेश भाई , प्राईव्हेट कम्पनियो की नीतियों को उजागर करती आपकी सुन्दर कहानी के लिये आपको मेरी बधाइयाँ ॥
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