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संदेसा भेज दे ,कान्हा को कोई ----(कुडंली छंद)

कुडंली छंद 

छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।

अँखियों से झर रहे,बूँद-बूँद मोती,

राधा पग-पग फिरे,विरह बीज बोती|

सोच रही काश मैं ,कान्हा  सँग होती,

चूम-चूम बाँसुरी,अँसुवन से धोती|

 

मथुरा पँहुचे सखी ,भूले कन्हाई,  

वृन्दावन नम हुआ ,पसरी तन्हाई|

मुरझाई देखता ,बगिया का माली,

तक-तक राह जमुना ,भई बहुत काली|

 

 खग,मृग, अम्बर, धरा,हँसना सब भूलें,  

 जूही ,टेसू, कमल ,महुआ ना फूलें|

 पूछ रही डालियाँ ,कौन संग झूलें,   

 निष्ठुर, निष्पंद हिय, उठती हैं हूलें|   

 

 

कोयलिया डार पर ,कुहुक-कुहुक रोई,

बीतें जग-जग दिवस ,रतियाँ न सोई|

बिरही  पगडंडियाँ , शूल- शूल बोई, 

 संदेसा भेज दे ,कान्हा  को  कोई|    

----------------------------------------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 2, 2014 at 8:08am

आ० कुंती जी बहुत- बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 2, 2014 at 8:08am

जितेन्द्र गीत भैय्या, आपको रचना पसंद आई हार्दिक आभार आपका. 

Comment by coontee mukerji on May 2, 2014 at 3:27am

बहुत सुंदर रचना. हार्दिक बधाई.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 1, 2014 at 10:36pm

अति सुंदर भावों से संजोयी रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीया राजेश दीदी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2014 at 9:14pm

मेरी इस रचना को फीचर करने के लिए एडमिन जी का हार्दिक आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2014 at 9:13pm

आ० सुरेन्द्र भ्रमर जी ,आपको ये कुडंली छंद इसके भाव पसंद आये हार्दिक आभार आपका ,मेरा लिखना सार्थक हुआ. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2014 at 9:12pm

आ० लक्ष्मण प्रसाद जी आपको रचना पसंद आई ह्रदय से आभारी हूँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2014 at 9:11pm

आदरणीय अखिलेश जी आपको ये छंद प्रस्तुति पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ,हाँ आपका कहना सही है सोच रही काश मैं होना था यहाँ टंकण त्रुटी आ गई है ,आपका परामर्श स्वागत योग्य है .हार्दिक आभार आपका. 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 1, 2014 at 6:46pm

मथुरा पँहुचे सखी ,भूले कन्हाई,  

वृन्दावन नम हुआ ,पसरी तन्हाई|

मुरझाई देखता ,बगिया का माली,

तक-तक राह जमुना ,भई बहुत काली|

विरह का वर्णन बहुत ही अनूठे तरीके से किया आप ने ...प्रभावी और प्यारी रचना जय श्री राधे
भ्रमर ५

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 1, 2014 at 5:59pm

सुन्दर भाव रचना के लिए बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी 

कृपया ध्यान दे...

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