उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु
कमजोर नही तुम
जननी हो श्रृष्टि की
प्रकृति और दुर्गा भी,
काली बन हुंकार भरो
नाश करो!
उन महिसासुरों का
गर्भ में मिटाते हैं
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो
करते हैं दामन तुम्हारा
तार-तार,
करो प्रहार उन पर
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी
तो मिटा दी जाओगी और
सदैव के लिए इतिहास
बन कर रह जाओगी !!
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
इस प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया.
नारी पर होते अत्याचारों के विरुद्ध आक्रोश में लिखी गयी रचना.......पर अंत से मैं भी सहमत नहीं हूँ.... नारी इतिहास बनी तो सारी सभ्यताएं नष्ट हो जाएँगी.
तर्क की कसौटी परभी रचनाएं सार्थक हों ऐसा प्रयास ही रहना चाहिए
आदरणीय श्याम नारायण जी, आदरणीया अन्नपूर्णा जी, प्रिय जितेन्द्र जी, आदरणीय शिज्जू जी आप सभी का तहेदिल से आभार | सादर
आदरणीय सौरभ सर , इन पक्तियों को मैंने उन माओं के लिए लिखा है जो दबाव या किसी मजबूरी में अपने गर्भ में पल रही बेटियों को ना जन्मने के लिए मजबूर हो जाती है बस् ... यही बात मेरे दिल में थी लिखते समय
आप के मार्गदर्शन में सीख रही हूँ सर ...रचनाकर्म में अभी बहुत खामियां है ..धीरे धीरे दूर करने का प्रयास कर सही हूँ ..आप की मार्गदर्शन रुपी टिप्पणी के लिए हृदय से आभार ..सादर
आदरणीया, उत्साह या आवेश में मुट्ठियाँ बाँधना एक बात है और रचनाकर्म ठीक दूसरी बात. ..:-))
स्ब कुछ सही है लेकिन स्त्रीयाँ न होंगी तो हमसब न होंगे.. अतः
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी
तो मिटा दी जाओगी और
सदैव के लिए इतिहास
बन कर रह जाओगी ... का क्या औचित्य ..?!..
बहरहाल, रचना प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
सादर
बहुत खूब लाजवाब आदरणीया मीना जी दिलीदाद हाज़िर है
बहुत प्रभावशाली रचना , आदरणीया मीना दीदी हार्दिक बधाई स्वीकारें
नारी को जागृत करती सुंदर रचना, आ0 मीना दी बहुत बधाई ।
बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई |
आभार स्वीकारें आ० अरुन जी
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