गौरैया
माँ ! आँगन में अपने
अब क्यों नहीं आती गौरैया
शाम सवेरे चीं चीं करती
अब क्यों नहीं गाती गौरैया
फुदक- फुदक कर चुग्गा चुगती
पास जाओ तो उड़ जाती
कभी खिड़की, कभी मुंडेर पर
अब क्यों नहीं दिखती गौरैया
माँ बतला दो मुझ को
कहाँ खोगई गौरैया ?
विकास के इस दौर में,बेटा !
मानव ने देखा स्वार्थ सुनेरा
काटे पेड़ और जंगल सारे
और छीना पंछी का रैन बसेरा
रुठ गई हम से अब हरियाली
पत्थर का बन गया शहर
अब आँगन बचा न चौबारा
सब तरफ प्रदूषण का कहर
न कीट पतंगे न चुग्गा दाना
बिन पानी सूखे ताल तलैया
क्या खाएगी कहाँ रहेगी
बेचारी नन्हीं सी गौरैया
भीषण प्रदूषण के कारण
लुप्त हो रहे दुर्लभ प्राणी
दिखेगी कैसे अब आँगन में
बेटा ! नन्हीं प्यारी गौरैया
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महेश्वरी कनेरी
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीया महेश्वरी जी ..आपकी चिंता बिलकुल जायज है ..गौरैया से सभी का लगाव है ..आपके दर्द को मैं महसूस कर सकता हूँ ..आपकी ये रचना शायद लोगों की सोच में परिवर्तन लाये ताकी ...गौरैया अपने अतीत के स्वर्णिम दिनों को प्राप्त कर सके ..सादर बधाई के साथ
आदरणीया महेश्वरीरी जी , प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ के प्रति आपकी चिंता उभर के सामने आ रही है , जो सही भी है ! आपको बधाई ॥
सच ! आज हमने क्या कुछ नही खोया है. बहुत मार्मिक रचना आदरणीया माहेश्वरी ज़ी बधाई स्वीकारें
आदरणीया, आपकी चिंता वाजिब है ... पर मेरा अपना अनुभव है
गौरैया आती है अभी भी, हमारे जगाने से पहले चीं चीं कर हमें जगाती है, दाना चुगती है हमें पास देख उड़ जाती है फुर्र ...पुन: लौटकर आती हमें बहलाती हैं ...उन्हें दाना (चावल) चाहिए और चाहिए पानी पास में कोई पेड़ पौधा हो फिर कोई नहीं उनका सानी ...हमें उन्हें बुलाना पड़ेगा दाना खिलाना पड़ेगा ...सादर!
आदरणीया महेश्वरी जी, आपने सत्य लिखा है और मार्मिक भी।
हार्दिक बधाई आपको।
सादर
आप सभी का बहुत बहुत आभार..
आदरणीया महेश्वरी जी
इस रचना मे बालसुलभ चंचलता, कौतूहूल, हमारा जीवन, बेतरतीब विकास और वातावरण की अनदेखी ..इन सब का सुंदर चित्रण किया है आपने. बहुत बहुत मुबारकबाद
कंक्रीट के शहर में पंची का बसेरा भला कैसे हो, सुन्दर रचना......
सुन्दर स्वाभाविक रचना मन को प्रभावित करती है। हार्दिक बधाई। सादर,
बहुत मार्मिक रचना है. हार्दिक बधाई.
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