इंसान का कद
इंसान का कद इतना ऊँचा होगया
कि इंसानियत उसमें अब दिखती नहीं
दिल इतना छोटा होगया कि
भावनाएं उसमें टिक पाती नहीं
जिन्दगी कागज़ के फूलों सी
सजी संवरी दिखती तो है
पर प्रेम प्यार और संवेदनाओ
की कहीं खुशबू नहीं
चकाचौंध भरी दुनिया की इस भीड़ में
इतना आगे निकल गया कि
अपनों के आँसू उसे अब दिखते नहीं
आसमां को छूने की जिद्द में
पैर ज़मी पर टिकते नहीं
सिवा अपने सब छोटे-छोटे
कीड़े मकोड़े से दिखते हैं उसे
कुचल कर उन्हें आगे बढ़ो
यही उसकी
नियति बन गई अब
ऐसा कद भी किस काम का
जिससे माँ का आँचल छोटा पड़ जाए
पिता गर्व से उन
कंधों को थपथपा भी न सके
जिस पर बैठ , वह कभी बड़ा हुआ था
ऐसा कद भी किस काम का…?
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महेश्वरी कनेरी
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर चित्रण .. बधाई
ऐसा कद भी किस काम का
जिससे माँ का आँचल छोटा पड़ जाए
पिता गर्व से उन
कंधों को थपथपा भी न सके
जिस पर बैठ , वह कभी बड़ा हुआ था
ऐसा कद भी किस काम का…?
लाजवाब!
उत्साहवर्धन के लिए आप सभी का आभार..
वर्तमान परिस्थिति का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है आपने आदरणीया यथार्थ लिखा है बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
सुन्दर भाव रचित सार्थक रचना प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया महेश्वरी कनेरी जी
ऐसा कद भी किस काम का
जिससे माँ का आँचल छोटा पड़ जाए
पिता गर्व से उन
कंधों को थपथपा भी न सके
जिस पर बैठ , वह कभी बड़ा हुआ था
ऐसा कद भी किस काम का…?.....एक सार्थक रचना.....समाज के उस दंभी वर्ग पर एक ज़ोरदार तमाचा. हार्दिक बधाई.महेश्वरी जी.
अंतर्मन की भावनाओं की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने आदरणीया - हार्दिक बधाई
आदरणीया महेश्वरी जी आपको इस रचना के कथ्य के लिये हार्दिक बधाई
सादर,
आदरणीया माहेश्वरी कनेरी जी
यदि कोइ इंसान अपने को इतना ऊंचा समझने लगे की इंसानियत ही भुला दे और उसके कद के आगे माता पिता और भाव युक्त हृदय भी बहुत छोटे/तुच्छ हो जाएं ..तो निश्चय ही जीवन अपने सार्थक मायने खोने लगता है. इस सार्थक कथ्य को स्वर देने के लिए बधाई ....लेकिन आपसे प्रस्तुतियों में थोड़ी और मेहनत अवश्य ही अपेक्षित है
शुभकामनाएं
बहुत ही सुन्दर भावात्मक प्रस्तुति .. बधाई ............... |
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