किसी मासूम की बेचारगी आवाज़ देती है
मुझे मजबूर होटों की हँसी आवाज़ देती है
कोई हंगामा कर डाले न मेरी लफ्ज़े-ख़ामोशी
मेरी बहनों की मुझको बेबसी आवाज़ देती है
तुम्हारे वास्ते वो रेत का ज़रिया सही, लेकिन
कभी जाकर सुनो, कैसी नदी आवाज़ देती है
मेरे हमराह चलकर ग़म के सहरा में तू क्यों तड़पे
तुझे ऐ ज़िन्दगी, तेरी ख़ुशी आवाज़ देती है
मैंने क़िस्मत बना डाली है अपनी बदनसीबी को
मगर, तुमको तुम्हारी ज़िन्दगी आवाज़ देती है
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल कही है सुशील जी। हर शे’र शानदार है। दिली दाद कुबूल कीजिए।
सुन्दर ..
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ......... |
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कोई हंगामा कर डाले न मेरी लफ्ज़े-ख़ामोशी
मेरी बहनों की मुझको बेबसी आवाज़ देती है...क्या कशिश है
तुम्हारे वास्ते वो रेत का ज़रिया सही, लेकिन
कभी जाकर सुनो, कैसी नदी आवाज़ देती है........गजब की रूमनिय्त भरा ख़याल है
बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुनील भाई
बहुत बहुत सुन्दर .. सादर बधाई
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