2122 2122 2122
नीले नीले नयनो पर पलकों का पहरा
जैसे चिलमन झील पे कोई हो पसरा
दिल तेरा बेचैन है मुझको भी मालुम
बाँध लूं कैसे मैं लेकिन सर पे सहरा
झीने बस्त्रों में तेरा मादक सा ये तन
जैसे बैठा चाँद कोई ओढ़े कुहरा
सुध में उसकी होश मेरे जब भी उड़ते
जग को लगता जैसे मैं कोई हूँ बहरा
उसकी बातें ज्यों हो कोयल कूके कोई
उतरे बन अहसास कोई दिल पे गहरा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय निलेश जी ..उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय सौरभ सर ..सादर प्रणाम ...आपकी हर प्रतिक्रिया नित्य ही कुछ न कुछ सिखाती है ..आपका स्नेह बस यूं ही मिलता रहे ..इसी कामना के साथ
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई
मालुम को मालूम भी किया जाय तो अरुज़ के लिहाज से दोष नहीं होगा.
कई विद्वान कहते हैं कि मिसरों में दीर्घ मात्राओं को बार-बार गिराने से बचना चाहिये. यह एक सुविधा ही है न कि जरुरत.
ग़ज़ल से मासूमीयत छलकी दिखती है. इसके लिए दिल से दाद कुबूल करें.
शुभ-शुभ
सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत बधाई!
मालुम ?........ यह टंकण की त्रुटि है या इसी तरह प्रयोग किया गया है?
नीले नीले नयनो पर पलकों का पहरा
जैसे चिलमन झील पे कोई हो पसरा - वाह ! उम्दा गजल रचना हुई है | बधाई श्री आशुतोष मिश्रा जी
आदरनीय आशुतोष भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , आपको बधाइयाँ ॥
pyaaree gazal mitra
बेहतरीन ......बहुत बहुत बधाई | सादर
बहुत खुबसूरत गजल आदरणीय डा.आशुतोष जी, दिली बधाई स्वीकार करें
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