२१२२ २१२२ २११२२
कितने ही लोगों से हमने हाथ मिलाये
गम में डूबे जब भी कोई काम न आये
दिल तन्हा ये रो के अपनी बात बताये
कैसे उल्फत हाय तन में आग लगाये
तोहफे में दे सका जो गुल भी न हमको
आज वही फूलों से मेरी लाश सजाये
जिनके दिल में गैरों की तस्वीर लगी है
करके गलबहिया वो सर सीने में छुपाये
दिल की बातें दिल ही जब समझे न यहाँ पर
क्यूँ तन्हा फिर भीड़ में दिल खुद को न पाये
वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही
जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर..आपके स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद ...आपकी प्रतिक्रियाए कभी उर्जा से लबरेज करती हैं उत्साहित करती है ..तो कभी आत्म चिंतन के लिए बिबश करती हैं ..अतिउत्साह और जल्द्वाजी से बचने का सन्देश देती हैं..इसलिए मुझे क्या सबको ही आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहता है ..सादर प्रणाम के साथ
रवायती ग़ज़लों का एक अपना अंदाज़ होता है. इस अंदाज़ के लिए बधाई आदरणीय..
दाद कुबूल कीजिये
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आदरणीय शिज्जू जी ..ग़ज़ल के एक दो जानकार लोगों से बात की थी ..मैं भी इस प्रयोग को लेकर शंकित हूँ ..निश्चित ही इस प्रश्न का उत्तर बिद्वत जानो से ही मिलेगा ..मार्गदर्षन के लिए तहे दिल धन्यवाद के साथ .सादर
वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही
जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये
सुन्दर , अति सुन्दर......................
आदरणीय डॉ आशुतोष सर बह्र तो अच्छा निभाया है आपने, लेकिन आखिरी रुक्न के लिये मैं भी शंकित हूँ।
तोहफे में दे सका जो गुल भी न हमको
आज वही फूलों से मेरी लाश सजाये.....क्या बात है. दुनियादारी का यह कैसा तोहफ़.....शायद....
वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही
जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये.......आपके सुंदर गज़लों उसका जवाब भी छिपा हुआ है.....आपको बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ , आखिरी रुक्न के विषय मे शंका है भाई जी , बाक़ी सही ग़लत जानकार बतायेंगे ॥
जिसने तोहफे में गुल न दिया वही फूलो से लाश सजाये
इस अनेकार्थी अभ्व्यक्ति के लिए डाक्टर साहेब को बधाई
खुबसूरत गजल कही बधाई आशुतोष जी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय।
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