लकीरें गहरी हो गयी है ,
बुधुआ मांझी के माथे की .
स्याह तल पर उभर आये कई खारे झील .
सिमट गया है आकाश का सारा विस्तार
उसके आस पास.
दुनियां हो गयी है दो हाथ की.
मिट्टी का घर, छोटे बच्चे, बैल, बकरियां और
खेत का छोटा सा टुकड़ा
इससे आगे है एक मोटी दीवार
बिना खेत और घर के कैसे जियेगा?
इससे जुदा क्या दुनियां हो सकती है ?
उनकी जमीन के नीचे ही क्यों निकलता है कोयला ?
पर वह किस पर करे क्रोध
अपने भाग्य पर , पूर्वजों पर , सिंग बोंगा पर ?
उसके आगे है घुप्प अँधेरा
वह धंसता जा रहा है जमीन के अन्दर
उसकी देह परिवर्तित हो रही काले पत्थर में
इस कोयले में शामिल है उसके पूर्वजों की अस्थियाँ.
उनके पूर्वज भी उन्हीं की तरह काले थे.
क्या यूँ ही उजाड़े जाते लोग
अगर कोयला सफ़ेद होता?
उसकी आँखे दहक उठी है अंगारे की तरह
आग लग गयी है कोयले की खदान में..
..नीरज कुमार नीर ..
मौलिक एवं अप्रकाशित ..
सिंग बोंगा : आदिवासियों के देवता
Comment
आदरणीया कुंती मुख़र्जी जी आपका दिल से आभार व्यक्त करता हूँ स्नेह एवं सहयोग बनाये रखें ..
आदरणीया राजेश कुमारी जी इस प्रोत्साहन एवं समर्थन के लिए हार्दिक आभार आपका ..
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आपका हार्दिक आभार .
नीरज कुमार जी, आपकी रचनाएँ हमेशा एक चित्र खींचती है. हम जब भी पढ़ते एक खुला दृश्य हमारे सामने आ जाता है.यह आपकी लेखनी की खूबी है......एक एक बंध विचारनीय है....कहीं देर न हो जाए और भोले आदिवासी कहानियाँ में दुबक के न रह जाय. आशा है आपकी ये रचना फलीत हो. अनेक साधुवाद.
वाह बहुत मार्मिक ....बहुत सुन्दर सटीक शब्दों में बयाँ की आदिवासियों की व्यथा .सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई नीरज जी.
नीर जी
आदिवासी व्यथा का अच्छा चित्रण आपने किया है i आपको धन्यवाद i
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