"चीख चीख कर पूछ रहा है ,ये उद्वेलित मन मेरा मुझसे ,
इस अन्धकार में कितनी सदियाँ और बिताना बाकी है ?
चूड़ियाँ पहने पड़ी इस सुषुप्त व्यवस्था को धिक्कारने में
अब भी यूँ ही कितनी मोमबत्तियाँ और जलाना बाकी है ?
इस कुण्ठित दानवता के कुकृत्यों से लज्जित ,
आज मानवता कितनी बेबस पानी पानी है ?
मोड़ मोड़ पर खड़े ये दुर्योधन और दु:शासन ,
दुर्गा पूजती सभ्यता की क्या यही निशानी है ?
कोरे कागज़ी कानूनों के फूल चढ़ाये ,यूँ अर्थियाँ उठाते,
कितने विद्रवित हृदयों को ढ़ाँढस और बँधाना बाकी है ?
इस अन्धकार में कितनी सदियाँ और बिताना बाकी है ?
मर्यादा पुरुषोत्तम से अपना अपराध पूछती ,
कितनी वैदेही कल भी थीं और आज भी हैं !
हाथ बाँधे खड़े महारथियों से न्याय माँगती ,
लज्जित द्रौपदी कल भी थीं और आज भी हैं !!
सीने सीने धधक उठे,ज्वाला रानी पद्मिनी के जौहर की ,
उस महाप्रलय कि खातिर कितने अश्रु और बहाना बाकी है ?
इस अन्धकार में कितनी सदियाँ और बिताना बाकी है ??"
~~~ चिराग़ [June 05,2014]
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
मर्यादा पुरुषोत्तम से अपना अपराध पूछती ,
कितनी वैदेही कल भी थीं और आज भी हैं !
हाथ बाँधे खड़े महारथियों से न्याय माँगती ,
लज्जित द्रौपदी कल भी थीं और आज भी हैं !!------आपने सही कहा आज भी कोई फर्क नहीं लगता ....राक्षस उस वक़्त भी थे ..आज भी हैं बहुत प्रभाव शाली भावपूर्ण प्रस्तुति है बहुत- बहुत बधाई आपको
अच्छी रचना वाहहहहहहहहहहहहह
सुन्दर .. सामयिक रचना हेतु बधाई आ० चिराग जी
रचना का कथ्य बहुत बढ़िया है..सामयिक है..सामाजिक है..
आपके द्वारा चयनित शब्द भी आपके मनोभावों की प्रस्तुति में पूर्णतः सक्षम हैं ..लेकिन शिल्प के स्तर पर ये कविता अभी बहुत सुधार की मांग करती है.
आप मात्रिकता और गीत/नवगीत विधा पर ज़रा सा ध्यान देकर इस प्रस्तुति के शिल्प को सरलता से साध सकते हैं
इस सुन्दर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई आ० चिराग जी
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