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फिर किया है कत्ल उसने इश्तिहार है

शुक्र है वो हर गुनाह का जानकार है

कत्ल वो हथियार से करता नहीं कभी

कत्ल करने की अदा कजरे की धार है

अब वफादारी निभाता कौन है यहाँ

अब मुहब्बत हो गयी नौकाबिहार है

आजकल लगने लगा हैं वो कुछ नया नया

फिर हुआ शायद कोई उसका शिकार है

झूठ भारी हो गया सच के मुकाबले

आजकल सच हारता क्यों बार बार है

मार डालें ना मुझे बेचैनियाँ मेरी

दिल मेरा ये सोचकर अब सौगंवार है

सिर्फ अश्कों की नमी है मेरे शह्र में

अब यहाँ होती है वारिस कब कभार है

मूँद लूँ आँखें तेरा दीदार हो जरा

दिल मुद्दतों देखने को बेकरार है

तो चले अन्तिम सफर आगे उमेश का 

मुस्करादेें वो जरा ये इन्तजार है

उमेश कटारा

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 6:17pm

आदरणीय उमेश भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है , आपको बधाइयाँ ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 11:34am

आ. उमेश भाई  जी सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई l

Comment by umesh katara on June 11, 2014 at 8:17pm

shukriya narenshinh chauhan sahb

Comment by umesh katara on June 11, 2014 at 8:16pm

shukriya Dr.Vijay shankar ji

Comment by umesh katara on June 11, 2014 at 8:15pm

Shukriya Abhinav Arun sir

Comment by umesh katara on June 11, 2014 at 8:14pm

SHUKRIYA डा गोपाल नारायन जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2014 at 7:17pm

कटारा जी

शिर्फ़ अश्को की नमी है मेरे शह्र में

अब होती यहाँ बारिश कभी-कभार है i  बहुत उम्दा i बधाई i

Comment by Abhinav Arun on June 11, 2014 at 5:44pm
अब वफादारी निभाता कौन है यहाँ

अब मुहब्बत हो गयी नौकाबिहार है.........आ. उमेश जी हार्दिक बधाई सुन्दर ग़ज़ल हुई है !!
Comment by Dr. Vijai Shanker on June 11, 2014 at 5:42pm
इश्क मासूम है , फिर भी गुनहगार है ,
सच में सच कहाँ हारता है कभी भी ,
सच के लिए कौन लड़ता है कभी भी
झूठ के पहरों में रहता सच लाचार है.
कविता सुन्दर है , बधाई उमेश जी.

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